वॉट्सअप्प में आए हुए पॉस्ट के सामने यह ....
मेरी टिप्पणीः भारतीय
संस्कृति जातियभेद में मानने वाली संस्कृति है.
यह जाति, वह जाति, यह विचार, वह विचार, और सदा के पीछे भगवान श्री कृष्ण की रही है मुस्कान. लेकिन यहां तो हिंदू कट्टरवादी निकले हैं.
पंजाब के विभाजन हिंदूओं ने करवाया क्यों कि उनको मुसलमानों
के साथ रहना नहीं चाहा. वैसे ही बंगाल भी एक होता अगर नेहरू की कलकत्ता पर आँख ना ठहरी
होती. आज कोई नहीं मिलेगा जो कहे कि पाकिस्तान जो बना वह गलत था! उनको
सुद्ध मुसलमान देश बनाना या नहीं बनाना चाहा लेकिन हिंदू को तो ‘सुद्ध’ देश ही चाहिए था
यह तय हुआ है.
यह गलत है कहना कि तलवार की नोक पर ही मुसलमान बनाए गये. लोग हमेशा लाभ के पीछे दोड़ते हैं. उस
वक़्त तो मुसलमान बनेने में शोहरत थी, मुसलमान बनने में
नहीं तो कम से कम इल्म और भाषा अपनाने की कोशिश में लोगों ने कोई कसर नहीं छोड़ी होगी. जैसे कि आज अंग्रेजी इल्म और भाषा के पीछे न पड़ने
में बेवकूफी समझी जाती है।
असल में हिंदूस्तान मुसलमानों की अमानत थी. इंडिया अंग्रेज की अमानत. इस में हिंदू बीच में टपक कर उसे लूटना चाहा. सही बात कहे तो ‘हिंदू’ शब्द भी अमानती है. यह जान कर तो कम से कम पाव तले ज़मीन तो खिसकनी चाहीए.
मेरा कहने का सार यह था कि औरों की अमानत न छीनते हुए अपनेअपने घरों के छाओं में हो गुज़र जाना चाहिए था. गांधी हो या जिन्ना दोनों एक ही कस्बे या प्रांत के थे शायद. उनको लड़ना ही पड़ा तो अपने कस्बे में रह रह कर ही क्यों नहीं लड़े! इतनी बड़ी कोहराम मचाने में क्यों किसी को पस्तावा नहीं हो रहा? भगवान श्री कृष्ण को क्या यह सब होना था? उनको छोटे छोटे बनते बनाते देशों के ले कर सारी दुनिया को उन्होंने बनाना चाहा. दुनिया मे उनके लिए कोई गैर नहीं. उन्हीं ने ही बनाई हुई चीज़ को गैर कैसे बोलें?
लेकिन हिंदूओं को हिंदूस्तान मिल गया है, उनको बाकी दुनिया से क्या लेना देना? उनके लिए एक सुद्ध हिंदूस्तान का ही सपना है, बाकी सारी दुनिया है गैर और नापाक. कल शायद हम गुमराह थे आज तो हमारा सुद्धता का दौर है!
10.29 p.m. 06-04-2022
एक दिपच्स्प विचारः आज़ादी के यह अमृत महोत्सव पर यह हम बिलकुल कह सकते हैं कि पहले औरों हम को गुलाम कहते थें, अभी हम सीना फाड़ कर कहते हैं कि हम गुलाम हैं! आज़ादी का तो आख़िर में कुछ फायदा तो हुआ ही.
और...
अंग्रेज़ को तो कतई छोड़ना नहीं था, अपने बनाए रास्ते को, रेल पटरी को, रोलवे स्टेशन्स को, इमारतों को, डब्बल डेकर बसों को, जो सारी चीज़ें
अपने मुल्क से प्रतिकृत्ति के रूप में यहां पर लाने का कष्ट न करते अगर यह सब सामने
वालों के हाथ में समर्पीत करने का थोड़ा सा
भी उनको पूर्वज्ञान होता.
यह सब सोंप देनी की बात चली तो लोग भी तो थे तैयारः
"आप जाओ, हम है तैयार! हम
ने क्या बेकार वक़्त गुज़ारे है आप के किताबें पढ़कर? इतने सारे इंगलेंड का दौरा कर कर के? हम सब संभाल लेंगे (आप की अमानत), आप चले जाओ,
हम तो आपने लगाए हुई नींव को और मज़बूत करेंगे. आप तो ख़ैर हिचकिचाते होगें कि गैरों पर सक्ति करें
तो कितनी करें, हम तो न मानने वाले
को भी मनवालेंगे. जो न माने उस पर आपका ही तो दिए हुए यंत्र-तंत्र को बेखुबी से इस्तेमाल
कर लेंगे. घबराईए मत. आपके अधूरे छोड़े काम भी पूरे करवा लेंगे !, आपकी शोहरत तो बरकरार रखेंगे, हम माने या न माने, आप भी माने या न माने."
"आज़ादी का अमृत महोत्सव क्या दर्शाता है? कि हमने आपको देए
हुए अलिखित वचन बेखूबी निभाया है. वैसे भी हम हर साल 15 ओगस्ट को आप को याद करते ही
हैं! बार बार शुक्रिया! सही में शुक्रिया!"
11.25 a.m. 08-04-2022
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