शनिवार, 6 अप्रैल 2024

भारतीय जाति की परिभाषा

The Times of India/jugglebandhi

Caste aside

March 29, 2024, 8:56 AM IST Jug Suraiya in Juggle-Bandhi, Edit Page, India, politics, TOI

पिछले अक्टूबर में, बिहार ने आज़ादी के बाद भारत की पहली जाति-आधारित जनगणना के नतीजे जारी किए, और इस जनवरी में आंध्र प्रदेश ने एक समान गतिविधि शुरू की, जिसमें  अधिकारी घर-घर जाकर लोगों से पूछ रहे थे कि वे किस जाति से हैं।

मुझे चिंता इस बात की है कि हरियाणा, जहां बन्नी और मैं रहते हैं, शायद ऐसा ही करेंगे और जाति सर्वेक्षण कराने का फैसला भी कर सकते हैं। यह पूछे जाने पर कि मैं किस जाति से हूं, हमारी तो अस्तित्व संबंधी एक पहेली खड़ी हो सकती है। क्योंकि मेरे या मनु के जीवन में, मुझे इस बात का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं है कि मेरी जाति क्या है, अगर कोई है भी तो।

जाहिर तौर पर, जनगणना का उद्देश्य उन वंचित जातियों की पहचान करना है जो गैस सिलेंडर जैसी सरकारी मुफ्त सुविधाएं पाने के हकदार हैं। और जो जाहिर तौर पर कम दिखता है वह उद्देश्य है कि विभिन्न जातियों की पहचान भाजप सरकार के कथित अखंड हिंदुत्व वोट को विभाजित करने की एक विपक्षी रणनीति है, ऐसा कहा जाता है।


मेरी टिप्पणी - 

आपका लिखा हुआ है: "जो जाहिर तौर पर कम दिखता है वह है कि विभिन्न जातियों की पहचान भाजप सरकार के कथित अखंड हिंदुत्व वोट को विभाजित करने की एक विपक्षी रणनीति है।"

अब यह अधिक समझ में आ रहा है, और योग्य भी लग रहा है। किसी उलझे हुए विचार के तहत लोगों को एक साथ इकट्ठा करना और इस यहां की दुनिया के हिस्से को एक तरह से भारत-पाकिस्तान में विभाजित करना और उस राजनीति से शानदार जीत पाना, यह निश्चित रूप से बहुत अच्छी बात नहीं कहलाई जानी चाहिए।

जाति सिर्फ वह नहीं होनी चाहिए जो आपका जन्म कहता है। वह तो और भी बहुत मायने रख सकती है।  पहले तो उससे आधार कार्ड वाली पहेचान टकराती है जो उसको अलग और विशेष पहेचान बनाने में तुली हुई है. फिर उसके बाद उसे हालात, उम्र, ऊंचाई, वजन, शिक्षा, नौकरी, दोस्तों, विचारों या समय के विशेष क्षणों में मनोदशा आदि से अपनी जाति को विशेष पेहराव मिलता है. एक आपका पाठक का विचार उद्धृत करने लायक है:

एस एस: "...18 वर्ष और उससे अधिक आयु का जाति सर्वेक्षण .... जन्म से, शिक्षा से, प्रशिक्षित कौशल से, आदतों से, शब्दों, विचारों, कर्मों से, व्यवसाय, नौकरी कमाने की शैली से, जाति का पता लगाएगा। सपने, कभी समुद्र पार कर विदेशी भूमि का दौरा किया? शौक से,  खाना जो खाया उससे......

आपको लिया जाय तो आप गुडगांव के रहने वाले हैं।  गुड़गांव से संबंधित होना यह भी काफी  मायने रखता है। जो एक स्थान जो आपके स्थायी पते के रूप में मौजूद होगा। एक ऐसी जगह जिससे आप परिचित हैं, शायद आपने वहां अपने जीवन का एक लंबा समय बिताया है। इसके बाहर, भ्रमण के दौरान यदि आपको गुड़गांव का कोई व्यक्ति मिल जाए, तो आप उसके बारे में और अधिक जानने के लिए उसके पास जाने को उत्सुक हों सकते हैं। यह भी आपकी जातिगत खींचतान में से एक है. इस जगह के बारे में बहुत कुछ  गहराई से अपना लेया हुआ होने से आपको इसका नया नाम गुरुग्राम को अपनाना जरा मुश्किल होता हुआ नजर आ रहा होगा, शायद।

यह प्रवृत्ति घटनाओं का स्वाभाविक झुकाव  समझें। आपके वर्गीकरण का एक हिस्सा समझें. सबसे पहले आपकी पहचान आपके फिंगरप्रिंट, उंगली के ठस्से से होती है. वह अपने आप में एक जाति है, एक दायरा है. फिर आपको एक व्यक्ति के रूप में परिभाषित करने के लिए आप अपनी जगह का झंडा लहराते हैं. अपने कसबे का झंडा, फिर एक गांव का, यानि की आपका गुड़गांव समझो.  फिर आगे चलते हरियाणा का दायरा टकराता है. और कहा जाय तो आगे की सीमा है उत्तर भारत, भारत, दक्षीण एशीया, एशीया... और आखीर में जो सारे जहां को संमलीत कराता है दिनिया, पृथवी, जिस पर एक ईश्वर पूर्ण स्वामित्व रखता है।

यहां कहने वाली बात यह है कि भारत नामक दायरा, सर्कल, वृत्त, या घेरा  ने सारी चीजों को उथल-पुथल कर दिया है। इसने अप्राकृतिक रूपरेखाओं को बढ़ावा दिया है। इसने अपने को पराया, पराया को अपना करने का वायदा कर रखा है, जो पूरी तरह से मानव निर्मित उलझे हुए विचारों पर आधारित है। यानी, भारत नामक घेरे के सामने आपकी भीतरी पहचान को जाने पूरी तरह से समर्पण कराने का भारतीय स्वतंत्रता प्रेमियों ने वायदा कर रखा हो। समझो एक पंजाबी की अप्रतीम पहचान को एक भारत या पाकिस्तान से तबाही सामने रखी गई हो!

खैर, वैसे भी, भारत का घेरा, चक्र किसने बनाया?  एक तो थे अंग्रेज; और उससे पहले थे फ़ारसी और उस के पहले थे संस्कृत बोलने वाले। वे जो थे वे उसके प्रति सच्चे थे, प्रामाणिक थे। अंग्रेज, अंग्रेज थे.  फारसी, फारसी थे, और शायद संस्कृत बोलने वाले वाकई संस्कृत भाषी थे.  लेकिन यह बात  इंडियन, या हिंदुस्तानियों या भारतीओं पर लागू नहीं किया जा सकता है। परिभाषा के अनुसार भारतीय एक समझौतावादी भ्रष्ट समुदाय हैं, चाहे वह गांधी हों या नेहरू या कोई अन्य भारतीय।  वह अपने खुद से ज़्यादा किसी और के बहकावे में रहना  पसंद करते हैं.

धर्मों की साजिश ने चीजों को और भी बदतर बना दिया है। मैं कहता हूं,  कि क्या अपने अपने विशेष दायरों को अपना जीवन जी ने का इस बनेबनाया भारत में कभी मौका मिल सकेगा? अभी भी विशेष दायरों में रहने वालों निर्दोषों को भारतीयों के शिकंजे से कभी राहत मिलेगी?

6:03 p.m., 05-04-2024



मेरी टिप्पणी - 2: -

उपरोक्त सब कुछ बेख़ुदी किस्म से भारत यानि क्या मुसीबत है, समझा देता है.  भारतीय कहलाने वाली जाति नेजिससे गांधीजी भी संबंधित थेउन्हें अपनी भारतीय जाति ने अपने जन्मस्थान पोरबंदर की ओर नहीं खींचा, अपने वर्तुलों की अधिकांश आंतरिक क्षेत्रों की ओर नहीं खींचा, बल्कि खींचा उन्हें संपूर्ण ब्रिटिश विरासत पर अपनी पकड़ फैलाने की चाह ने। ऐसा नहीं हो तो इंडियन-भारतीय बनने का क्या मतलब होताइस लिए थोड़े न है कि भारतीय बने हैं और अपने गांव चले जाएंअंग्रेजों से पढ़लिखकर बेरिस्टर बने, तो क्या इस लिए कि दक्षिण अफ्रिका न जाया जाय, और उससे पैसे न कमाया जाय, और वापस आते ही अपने गांव का रुख थामा जाए! यानीकि सही रूप से भारतीय न बना रहा जाय

यही तो भारतीयों को परिभाषित करता है, भारतीयों की जाति को परिभाषित करता है।  साथ साथ में गैर-भारतीयों का भी परिभाषा कर लिया जाय, यानीकि जिन्हें अपनी भाषा से ही ताआलुक हो, अपने ही सही वतन से ही वास्ता हो। 

यदि अंग्रेजों ने सभी आकांक्षी भारतीय जातियों को दरकिनार कर दिया होता, सभी रियासतों और जो भी क्षेत्रों जो उनके सीधा नियंत्रण में थेउनका अपना अपना हक दिला दिया होतातो क्या नतीजा निकला होतागांधी-नेहरू जैसे भारतीयों अपने भारत को गवाते वह तो निश्चीत था, पर एक ज़बरदस्त फाईलें वाली बात, क्या लोगों की हताहत हुई होती जो हुईजल्दबाजी में किये गये  हत्याएं और निहायती अफसोजनक विस्थापन क्या हो सके होते?   लेकिन किसी के मन में यह बात नहीं आती। खैर भारतीयों के मन में यह बात कतई न आ सकती,  उनका अस्तित्व जो दाव पर लग जाता है इसमें। 

हम सभी अपने महान भारत की आज़ादी का जश्न मनाते हैंकहीए कि अमृत महोत्सव तक का जश्न मनाया हैं, लेकिन हम इस समझ के परे हैं कि यह सब  निर्दोष,  असम्बंधित, यानि 'गैर-भारतीयों' के बहते खून पर खड़े रह कर भारतीय झंडा लहराया गया था।

 यह सब नतीजे के रूप में होते हुए गांधीजी को नींद कैसे आई होगीउनकी कुछ  तरफदारी करते हुए वे शायद पूरी तरह से –  इंडियन भारतीय नहीं बन पाए थे।  शायद वे जिंदा होते तो आज इस हमारी दुनिया में कुछ न कुछ सही रास्ता ले कर दिया होता.  भारत माता की जय का नारा जरा कमज़ोर करवा कर सही रास्ता पकडवाया होता।

खैर, अंग्रेजों से तो आज़ादी मिलीपर अंग्रेजों के गुलामों से कभी रुखसत मिल पाएंगी, यह बडा प्रश्न सामने खडा है. गुलामों अपनी गुलामी वाली जाति को कैसे रुखसत दे सकतें हैं?

अरे,  उन गुलामों पर ही तो  दारोमदार है अंग्रेज से पाये हुए देश को चलाना.  हम रात दीन एक करके अपनो में से ही और भारतीयों को बना रहे हैं क्योंकि अंग्रेजों से पाई हुई लूट चलती रहे, बरकरार रहे.

अंग्रेज खुद अपने गांव चले गये।  मालिक यह कर सकता हैगुलामों को ऐसा विकल्प कहां?  उनका गांव सारा अंग्रेज निर्मित भारत जो ठहरा!  भारतीयों की परिभाषा है, न घर के न घाट के.

  11.56 सांय, 07-04-2024


जन्मसिद्ध अधिकार!

 भारत का विभाजन कौन चाहता था? हिंदू या मुसलमान? विभाजन से कौन खुश था?

 

जवाब देने वाले..... मुहम्मद हनीफ खत्री

 

यह 70 साल पुराना इतिहास है। जो लोग बंटवारा चाहते थे वे दुनिया छोड़कर चले गए, जो खुश और दुखी थे वे सब परलोक चले गए। आज भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र है, गर्व से अपने पैरों पर खड़ा राष्ट्र है।

इस समय इस अतीत को कुरेदने की क्या जरूरत है? ऐसे सवालों के किसी जवाब से देश का भला होगा? क्या किसी का हृदय परिवर्तन हो रहा है? क्या किसी को अदालत ले जाया जाएगा?

भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए अक्सर अतीत को भूलना जरूरी होता है। मुझे यहां दो शेयर याद हैं...

जला है जिस्म जहां, दिल भी जल गया होगा

कुरेदते हो जो अब रहक, जुस्तजू क्या है ?????

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जिन जख्मों को वक्त भर चला है

आप दूसरे छोर पर क्यों रह रहे हैं?????


मेरी टिप्पणी:

भारत का विभाजन कौन चाहता था? हिंदू या मुसलमान? विभाजन से कौन खुश था?

इसमें खुश होने की बात नहीं होनी चाहिए. कर्तव्य की बात होनी चाहिए. ईश्वर के प्रति कर्तव्य, धर्म के प्रति नहीं. ईश्वर और धर्म दो अलग अलग बात है।  आप  कौन हैं? आप कहाँ से हैं और आप क्यों हो? ये सब ईश्वार / भगवान  की बाजू की बात है. हिंदू,  मुस्लिम और ख़ुशी आदमी की कल्पना का खेल है।

लगभग सभी भारतीय खुशी का पीछा कर रहे होते हैं। विदेशी शासक इसका उपयोग करना बेखूबी जानते थे। क्या एक विशाल देश को इकट्ठा करना और उसे नियंत्रित करना आसान बात कैसे हो सकती है?  एक छोटे से देश ने भारत ही नहीं, लगभग पूरी दुनिया पर राज किया। यह बेहद सराहनीय है. परन्तु यदि गुलाम प्रशंसा करे, तो वे गुलाम कैसे?

हमारे पास एक कश्मीर है जो तेढा है। उसके साथ चालबाजी किए बिना उसको वश में रखना मुश्किल है। लेकिन ख़ुशी के लिए अपने आपको अर्पित करने वाले  बाकी भारतीय उस चालबाजी से पूर्ण समर्थन में हैं, यह तो सब जानते हैं।

प्रश्न यह है कि आप कौन हैं? आप कहाँ से हैं और क्यों हो?  यह सभी पर लागू होता है और सभी की सहमति होती है। एक-दूसरे से पूछें कि आप किस गांव के हैं। वह विचार अब तक का सबसे अच्छा विचार है. लेकिन हम है जो अपने मनमानी की बहुत परवाह करते हैं ।  यानी कि गांधी के मन की बात,  मोदी के मन की बात. विभाजन, उथल-पुथल और उत्पीड़न से उबर न पाने के कारण लोगों को भागना पड़ा, ये सभी बातें मन की बात में आती हैं।

यानी अतीत को छेड़ना बहुत जरूरी है। लोकमान्य तिलक ने कहा था कि स्वतंत्रता जन्मसिद्ध अधिकार है। इसका मतलब मन को चाहने वाला स्वतंत्रता नहीं है, जो भारत माता की जय,  मनुष्य के मन में भरी आजादी को दर्शाता है। आज़ादी का मतलब है जैसे कि इंग्लैंड, अंग्रेजी बोलने वाला इंगलैंड आज़ाद है, वैसे ही गुजराती बोलने वाला गुजरात आज़ाद होना चाहिए। मानो जन्मसिद्ध अधिकार वाला तथ्य तो यहां लागू होना चाहिए. किसी दूसरे विचार का अवसर नहीं मिलना चाहिए।

भारत के बाहर सबसे ज्यादा गुजराती भाषा पाकिस्तान में बोली जाती है। तो फिर किस आधार पर गुजरात को उन लोगों से दूर रखा गया है? यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार और नैतिक कर्तव्य है कि उन्हें गुजरात का अधिकार मिले। साथ ही बांग्लादेश में रहने वाले बिहारियों को भी बिहार पर अधिकार रहे. और फिर सिंधी, पंजाबी तो है ही।

सच्चा सुख तब मिलेगा जब हम धर्म या मन की बातों पर नहीं, बल्कि सीधे ऊपर से आने वाली बातों पर विश्वास करेंगे। पाकिस्तान - भारत पापों से भरा संकल्प  हैं।

9:07, 03-04-2024


बुधवार, 3 अप्रैल 2024

स्वयं ही बनायें ओर स्वयं ही भगाएं?

 गुजराती क्वोरा से अनुवाद.....

यदि अंग्रेज भारत नहीं आये होते और मुगल तथा अन्य नवाब भारत पर शासन करते रहते तो क्या आज भी भारत एक हिन्दू बहुसंख्यक देश होता?


राठो़ड नीलेश का जवाब...

जरूर होता।

जितना मैंने इतिहास का अध्ययन किया है, मैं कह सकता हूं कि यदि ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश सरकार ने भारत को गुलाम नहीं बनाया होता और मुगल साम्राज्य के अधीन नहीं होता, तो भारत आज भी एक हिंदू बहुसंख्यक देश होता।

इसके पीछे मुख्य कारण हिंदू बहुसंख्यक आबादी है।

मुगलों और अन्य विदेशियों के भारत पर आक्रमण करने और उसे गुलाम बनाने में सक्षम होने का कारण भारत के राज्यों के बीच एकता की कमी थी।

यदि भारत के लोग पूर्ण बंधुत्व और देशभक्ति के आदर्शों पर चलते तो शायद हम कभी गुलाम नहीं होते।

मुग़ल साम्राज्य और अन्य अफ़गानों या तुर्कों के आक्रमण का कारण भारत की संपत्ति थी, नहीं कि केवल हिंदू धर्म का विनाश था।

यदि आप इतिहास को गहराई से पढ़ेंगे तो पाएंगे कि औरंगजेब को छोड़कर मुगल साम्राज्य के किसी भी राजा ने भारत के लोगों के बीच धार्मिक भेदभाव की नीति नहीं अपनाई।

अकबर के नौ रत्नों में से कई मूल रूप से हिंदू राजा थे।

उन्हें दीन-ए-इलाही बनाया गया और उन्होंने एक नया धर्म बनाया जिसमें दोनों धर्मों के अच्छे पहलुओं को शामिल किया गया था लेकिन उन्होंने किसी को उसका पालन करने के लिए  मजबूर नहीं किया इसलिए आज उनका कोई अनुयायी नहीं है।

लेकिन भारत का दुर्भाग्य है कि आज जो धार्मिक भेदभाव है, वह उससे भी कहीं ज़्यादा है। वजह है सोशल मीडिया पर असामाजिक पोस्ट...और इतिहास की अधूरी जानकारी...

भारत के गांवों के लोगों में आज भी एकता है जो इस शहरीकरण से कहीं न कहीं टूट रही है।



मेरी टिप्पणी - ऊपर से - 'मुगलों और अन्य विदेशियों के भारत पर आक्रमण करने और उसे गुलाम बनाने में सक्षम होने का कारण भारत के राज्यों के बीच एकता की कमी थी।'

हम एक-दूसरे को पटाने का, गुमराह करने का  अच्छा काम करते हैं।  यह लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। समझो, इस तरफ एकता की कमी थी तो क्या उस तरफ बहुत एकता थी अर्थात राज्यों के बीच एकता थी?   मुग़ल अपने ही छोटे, महत्वहीन गाँवों से आए थे और अंग्रेजों का अपने पड़ोसी राज्यों से बहुत अधिक लेना-देना कब था ? हा, उनकी आपस में खुब पटती होगी.  उनकी अंदरोअंदर में एकता का जवाब नहीं होगा. अंग्रेज का मतलब है अंग्रेज. लेकिन हमारे यहां  गुजराती का मतलब गुजराती ऐसा होई नहीं सकता । यह तो बहुत सामान्य सी बात लगती है. लेकिन यहां हम राज्यों के बीच एकता की बात कर रहे हैं. एक मजबूत देश की अखंडता की बात हो रही है.

हम गुजराती-गुजराती नहीं खेलना चाहते. हमारे सामने हिंदू मुस्लिम का मुद्दा है, हमें इसका इस्तेमाल करना पसंद करते हैं.  इसी के दम पर तो भारत आज एक मजबूत देश के रूप में खड़ा है।

जैसा कि आपने लिखा है, ‘यह भारत के लिए दुर्भाग्य की बात है कि आज जो धार्मिक भेदभाव है, वह उससे कहीं अधिक है।’  लेकिन इसी में तो भारत की देशभक्ति शामिल है। जितना अधिक धार्मिक भेदभाव होगा, भारत उतना ही मजबूत होगा और हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं कि इस मामले में हम कितना आगे निकल गये हैं।

दरअसल धर्म और अध्यात्म या ईश्वर स्वयं दो अलग चीजें हैं। धर्म मनुष्य का बनाया हुआ है. अध्यात्म अर्थात ईश्वर जो है वही है। यदि आप अंग्रेज़ हैं तो आप अंग्रेज़ हैं। यदि आप गुजराती हैं, तो आप गुजराती हैं। यदि आप सिंधी हैं, तो आप सिंधी हैं। यदि सिंधी को धर्म ही सब कुछ है ऐसा नहीं कहा जाता तो क्या उन्हें अपनी मातृभूमि छोड़नी पड़ती कोई ऐसा ईश्वर हो सकता हैं कि  जो स्वयं ही सिंधिओं  को बनाता और स्वयं ही सिंधिओं को भगाता है क्या सिंधिओं की अपनी सरजमीन पर से हटाने का ठेका  स्वयं ईश्वर ने ले रखा थायह मानना मुश्किल है।

अगर इस बात की समझ लोगों में फैले तो सभी चीजें एक हो मौके पर में सुलज जाएंगी, चाहे वह कश्मीर हो या पाकिस्तान, या शक्तिशाली भारत।

03-04-2024




मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

एक गणतंत्र लेकिन एक साम्राज्य भी

गुजराती  Quora पर हुई गुफ्तगू


यदि यूरोपियन भारत न आये होते तो आज भारत कैसा होता?

"यदि यूरोपियन भारत नहीं आये होते तो भारत का स्वतंत्र देश बनना कठिन था क्योंकि जितने राज्य थे उतने ही रियासत थे और यदि सभी रियासत शक्तिशाली होते तो अब तक अलग-अलग देश बन चुके होतेलेकिन अंग्रेज़ों ने कहीं-कहीं रियासतों से लड़कर उन्हें पराजित करने के बाद या कहीं मित्रता बनायी और हर रियासत की ताकत को कम कर करके  एक बड़े ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना कीजिसके कारण जब भारत स्वतंत्र हुआ तभी सरदार पटेल के  नेतृत्व में  ये सभी रियासतें एक एक करके  कम समय में भारत में  विलय करना संभव हो पाया। और इस प्रकार भारत राजाओं के शासन से मुक्त होकर एक सही मायने में एक सच्चा गणतंत्र बन गया।

ब्रिटिश शासन के अन्य लाभ इस प्रकार हैं

तारडाकस्कूलकॉलेज आम जनता के लिए उपलब्ध हो गये।

भारत में पेट्रोल कारों और रेलवे का युग शुरू हुआ।

एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा का अधिग्रहण हुआ जिसके कारण विश्व के अन्य देशों के साथ संचार संभव हो सका।

उस समय के हमारे कई नेता बैरिस्टर की डिग्री का अध्ययन करने और उसका ज्ञान प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड आये थे। इसलिए वे अंग्रेजों से लड़ रहे थे। डॉ। अम्बेडकर ने इसी ज्ञान के आधार पर भारत का संविधान भी लिखा।

मुंबईदिल्लीचेन्नईकलकत्तागोवा और शिमला जैसे सीटीओ का प्रारंभिक विकास भी उन्हीं (अंग्रेजों) की देन है।

मुंबई के फिल्म उद्योग की शुरुआत उस समय उनके (विदेशियों) द्वारा आविष्कार किए गए वीडियो कैमरे से संभव हुई।"


मेरी टिप्पणी- भारत न होता, शायद हिंदूस्तान होता.  सवाल यह है कि क्या आज जो है वह सही है? यानी भारत जो अखंड गणतंत्र बन गया है वह अच्छी बात है क्या?  क्या आजकल एक गणतंत्र का होना और साथ में एक साम्राज्य का होना ​​उचित है?

क्या किसी को यह ख्याल नहीं आया कि हम ने अंग्रेजों की पकड़ में शामिल हो कर उसी पकड़ को मजबूत करने का प्रयास करके कुछ गलत तो नहीं कर रहे थे, या कर रहे हैं?  जाना होता था विपरीत दिशा में पर गए, ब्रिटिश साम्राज्य की दिशा में और इतना ही नहीं,  बल्कि जहां-जहां अंग्रेज कमजोर थे, वहां-वहां मजबूत स्थिति लाकर  साम्राज्य को और भी मज़बूत बनाया और  अपने इरादे को दुनिया के सामने रखने में हमें कोई संकोच नहीं हुआ ।  हालाँकि, यह मनुष्य की अपनी अपनी राय है। भारतीयों जिस तरह "स्टैच्यू ऑफ यूनिटी" को देखने के लिए भीड़ लगाते हैं,  किसी को इस मामले में कुछ गलत लगता हो ऐसा दूर दूर तक नज़र नहीं आता।

इस के लिए एक कारण है। "भारत माता की जय" एक कारण है। हम अंग्रेजों की बनाई नींव पर खड़े हैं और 1000 साल पहले के भारत की ओर घूर कर देख रहे हैं. हम उस पुराने भारत के सेवक बनना चाहते हैं। सोचिए, जब भारतीय संस्कृति को हटाकर अन्य संस्कृतियों को पूरे देश में फैलाया गया हो तो यह उसके लिए कितना गलत रहा होगा? इस बात के  ऊपर घोर देना अभी लगातार चालू है।

संस्कृत सभ्यता को अवश्य ही ठेस पहुँची होगी, उसी तर्ज पर सोचते हुए हमने, वर्तमान में, बाद में आई सभ्यताओं के चिन्हों को निरस्त करने का विकल्प चुना है। बॉम्बे, बॉम्बे वीटी, मद्रास, कलकत्ता, मुगरसराय, औरंगाबाद ने इन अच्छे नामों का खो देने को नुकसान उठाया है क्योंकि हमें 1000 साल पुरानी सभ्यता से किसी तरह समझौता करना होगा। ऐसी हमारी समझ हो बैठी है। यहां पर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाकर यह बात सामने आती है कि वसुदेवकुटुंबकम यह एक हिंदू धर्म का तथ्य  कितना  झूठा समझा जाए?

 हम तो सिर्फ गुलामी में जीना चाहते हैं. अंग्रेजों की बनीबनाई बुनियाद पर खड़े होकर जोर जोर से चिल्लाना है – भारत माता की जय!” । यह एक गुलामी के तले होकर दूसरी गुलामी की जय-जयकार करने की पेशकश हमने हाथ में संभाली हुई है। भारत देश के गुलामों के लिए यह समझना कठिन है कि इससे उनकी अपनी अपनी भाषाई सभ्यताओं का अनादर होता है । हर सभ्यता का अपना स्थान, अपनी विशेषताएं होती हैं। उसे अपने निशान, अपना अस्तित्व पेश करने का अधिकार होना चाहिए। चाहे गुजराती हो या मराठी, जर्मन हो या रूसी, हर किसी को पूरी तरह अस्तित्व में रहने का कार्मिक अधिकार है। मेरी महान भारत माता ने अनेक भाषाई सभ्यताओं को जन्म दिया है। इन सब को एक भारत माता की जय की पुकार ने पीछे कर दिया है.  भारत माता की जय का मतलब है कि सब कुछ धर्म के नाम पर है, इसलिए सब कुछ माफ है। लेकिन मुद्दा यह है कि धर्म और ईश्वर एक ही रास्ते पर नहीं चलते!

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत अप्रत्याशित रूप से समझदार व्यक्ति प्रतीत होते हैं। उन्हें कई बार मातृभाषा के मुद्दे पर चिंता जताते हुए देखा गया है. लेकिन वे यह मानने को तैयार नहीं होंगे कि यह चिंता में ही जवाब  है क्योंकि उसके लिए भारत माता की जय का नारा बंद करना होगा जिससे उसमें उनकी सारी बातें खराब हो जाएंगी, हिंदू राष्ट्र की बात खराब हो जाएगी!

अंग्रेज अपने साम्राज्यवादी विचारों को छोड़कर उनके   छोटे से द्वीप पर लौट आए हैं, तो हमारे विचार उनके जैसे कब होंगे  ताकि भारत, हिंदुस्तान और इंडिया के साम्राज्य इतिहास के पन्नों में सिमट जाएं?  

दूसरी  बात यह है कि  विस्थापित सिंधी और पंजाबी अपने घर वापस जा सकेंगे, या नहीं? क्या किसी के मन में विचार आता है?

  ऐसा लगता है कि जब तक भारत माता की जय का नारा बजता रहेगा ऐसा कोई मन में विचार आना मुश्किल है।  अभी तो लोकतंत्र के नाम पर अत्याचार कायम है. इसमें तो हिंदू धर्म को भी शामिल कर दिया गया है. धर्म और ईश्वर एक दूसरे के विरोधाभासी हैं। इसलिए आशा  बनी रहेगी।

11:18 p.m. 01-04-2024

सोमवार, 11 मार्च 2024

कलंक के धब्बे

मूल लेख के लिए -  The Times of India


मेरी टिप्पणी  -  एक असाधारण लेख जिस पर कोई भी टिप्पणी किए बिना नहीं रह सकता।

जब हम राजशाही और साम्राज्यों के बारे में बात करते हैं तो उस के अंतर्गत इकाई से शासन होना ठीक है,  एक अकेले का शासन होना ठीक है ।  एक ही विचार से जु़ड़े शासन का होना ठीक है। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में जब आम लोगों को उत्साहित किया जाता हो,  उन्हें राजनिती में भाग लेने के लिए उकसाया जाता हो कि वे एक इकाई, एक प्रधान मंत्री,  या पार्टी की इच्छा के अनुरूप खुद को ढाल दें,  तो यह पूरी तरह से उचित समझना गलत होगा, खास करके एक विशाल देश भारत में ।  जैसे कि लेख में उल्लेख किया गया है कि भारत मूलरूप से  बहुत अलग तरीके से पेश आया था। विभिन्न समुदायों के अलग-अलग नियम थे। समय के साथ नियम बदले गए. एकरूपता की कोई आवश्यकता नहीं थी।

पहले पुराने भारत में जाति व्यवस्था हावी थी, जहां राजा की एकल इकाई अपना काम करती थी, और जनता अपनी विभिन्न आवंटित क्षमताओं में अपना काम करती थी। भिन्नता का ही एक आधारस्तंभ था । समरूपता, एकरूपता की तभी कोई बात ही नहीं करता था ।

अब हमने जाति व्यवस्था को नजरअंदाज़ कर दिया है, और लोगों को उच्च पदों की तलाश करने के लिए उकसाया  है,  ताकि आम लोगों के बीच में से भी सर्वोच्च पद प्राप्त किया जा सके। पी.एम. मोदी वहां सबसे अनुकरणीय उदाहरण बने हैं,  लेकिन इसका मतलब जनता में एकरूपता लागू करना है,  अधिक से अधिक लोगों को किसी न किसी मुद्दे पर सहमत कराना है,  वह जो लोकतंत्र के रीतरिवाज में लागू होता है । लेकिन यह सब भारत जैसा विस्तार मे लागू करना प्रकृति की नजर में अस्वीकार्य होना चाहिए । बहुसंख्यकवाद,  ध्रुवीकरण,  जनता को इस ओर झुकाना, इस ओर, उस ओर ले जाना लोकतंत्र से संबंधित है,  लेकिन वे छोटे छोटे कस्बे में लागू करना योग्य है, भारत जैसा विविध देश को विविधता को कमतर करना उपरवाले के नज़रिए में से शोभा नहीं देता।    वर्तमान पीढ़ी में "सम्राट अशोक" का होना बिलकुल जाइज़ है पर तभी लोकतंत्र नहीं रहनी चाहिए। राजशाही होनी चाहिए। जो शायद कुछ अप्रत्यक्ष अंदाज़ में आज भारत में अमल में मौजूद है भी !  

असली अशोक सम्राट के दौरान  लोगों को अल्पित रखा जाता था।  उनका राज्यतंत्र से कोई लेना दे ना नहीं था। उनके जीवन में उथलपाथल का मौका कम मिलता होगा   उनको सिंधी, पंजाबियों की तरह भागने का मौका कभी पेश नहीं आया होगा।  

जैसे की ज़ाहीर है, बाकी दुनिया के विपरीत, भारत सिर्फ एक राष्ट्र नहीं है। वह राष्ट्रों से भरा एक राष्ट्र है। अंग्रेजों के तले बना हुआ एक राष्टों का राष्ट्र. यदि पी.एम. मोदी अपने गुजराती भाषी राष्ट्र, गुजरात में अपना दबदबा रखते हैं,  ऐसे में उन्हें पसंद करने वालों का दायरा गुजरात तक सीमित रहता। ठीक वैसे ही जैसे हिटलर मूलतः जर्मन भाषियों का था। निःसंदेह, हिटलर पूरी दुनिया पर कब्ज़ा करना चाहता था, लेकिन जर्मनों की ज़मीन आख़िरकार सिकुड़कर वहीं रह गई जहाँ उनकी जर्मन भाषा बोली जाती है।  वैसे भी हिटलर को अपनी जर्मन भाषा के अलावा कोई और भाषा ठंग से बोल पाते होंगे?   अगर पी. एम मोदी साहब सिर्फ और सिर्फ गुजराती बोलते तो यह लेख की कोई ज़रुरत ही नहीं होती.  भला लोगों को क्यों दूसरों की भाषा सीखनी ही पड़े!

वास्तविकता पर आएं तो  यहां भारत से तात्पर्य उस भूमि से है जिस पर अंग्रेजों ने कब्जा कर रखा था। अंग्रेजों ने जिस पर कब्जा कर रखा था उस पर सवार होना ही पी.एम. मोदी की असाधारण उपल्बधी का कारण बना है.  तथ्य यह है कि गांधी, नेहरू और अन्य लोगों की तरह, भारतीयों नहीं चाहते थे कि बनी बनाई सौगातरूपी पायी गई  कब्जाई  जमीन किसी भी तरह से, उसका कोई भी हिस्सा गवाया  जाय। आज तक की सारी हैरानी सब इसी समबंधी है । अंग्रेजों ने बनाये हुए भारतीय लोग,  गुजरात, या महाराष्ट्र या किसी अन्य भाषाई आयाम में रुचि नहीं रखते  हैं ।  उनको तो सारा भारत अपने तयीं करना है, अपने विचारों के आधीन करना है,  अंग्रेजों से सीखा हुआ विचारों के आधीन और साथ साथ अपने धर्म, हिंदू धर्म के विचारों के आधीन  रखना है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मोहम्मद अली जिन्ना ने  दो-राष्ट्र सिद्धांत को पेश किया। कारण कि इंडिया और भारत के बीच खड़े हुए मुगल निर्मित हिंदुस्तान को कैसे भूला जा सकता है।  लेकिन, अफसोस, यह बस केवल एक ही असहमती थी, जबकि स्व-शासन की माँग करने वाले बांग्लादेश जैसे  सारे समूह उठखड़े होने चाहिए थे.  अगर शायद सारे के सारे नेताओं को अपनी ही भाषा आती तो और सोचने की बात ही न होती.  लेकिन अफसोस,  मुगलों के बदौलत नेताओं ने हिंदी सीखी, और अंग्रेज ने अंग्रेजी‌‌ में माहिर करवाया कि गुलाम बनो तो सही, पर  ढंग से बनो.  

द्वि-राष्ट्र सिद्धांत ने एक स्थायी तत्व प्रस्तुत किया जो अन्यथा संभव नहीं हो सकता था । भाजपा या उस मामले में भारत, (या पाकिस्तान) आपसी नफरत के कारण अधिक सार्थक रूप से जीवित हो पा रहे हैं ।  राजकर्ता यह बेखुदी जानते है कि नफरत को बढ़ावा मतलब  देशभक्ति का बढ़ावा ।  हत्या और विस्थापन जो 'भारतीयों' ने  सिंधियों और पंजाबियों को भुगतने पर मजबूर किया,  वास्तव उसी की नींव ने 75 वर्षों और उससे अधिक समय तक का देशव्यापी कब्ज़ा अजमाने की खुशी भारतीयों के दिलों में पैदा करने में मदद की हैं  । चाहे अपने पैर तले खुन की नदियां बही हो, अपना काम तो हो गया ना ! अपना भारत के लिए सब कुछ जायज़ है । अंग्रेज़ों ने भारतीयों को ऐसा बनाया है कि वे भारत को 'ना'  कभी नहीं कहेंगे।

नहीं, नहीं, वे ना बिलकुल कह पायें गे ।    उन्होंने एक बाहर निकलने का रास्ता निकाल लिया है । वे 'इंडिया' को, यानि कि अंग्रेजी वाला भारत को ना कहेंगे।  जिस तरह से उन्होंने 'बॉम्बे, कलकत्ता, मद्रास' को बाहर कर दिया है । हालाँकि, यह तो सिर्फ नाम बदलने की बात बनी है।   वास्तविक अंग्रेज का बनेबनाया साम्राज्य को ना कतई नहीं होगा ।  जहां तक अंग्रेजों निर्मित भारतीय है, भारत कायम रहेगा । इंडिया हो या भारत दोनो बराबर.

एकता की मूर्ती (स्टैच्यू ऑफ यूनिटी) को खड़ा करना पी.एम. का सबसे ज़बरदस्त तरीका था ये बाताने कि भारत कायम रहेगा । मूर्ति वास्तव में उन्हीं की होनी चाहिए थी ।

आज के भारतीय यानी कि गुलामी का तांडव करने वाले हमें आदर्शरूपी 1000 साल पहले के भारत ले जाना चाहता है ।  वे संस्कृत भाषा वाला भारत के तले आदर्शरूपी नतमस्तक होना चाहते है।  संस्कृत भाषा को लादना सर्वश्रेष्ठ विकल्प है उस में कोई संदेह नहीं । लेकिल हम इसराइल थोडी ने है कि रातोरात संस्कृत भाषा सिखेंगे जैसे कि इसराइलों ने अपने धर्म से लगती हिब्रु भाषा सीखी है?   उनके लोगों चाहे मूलरूपसे कौंसी ही भाषा के हो, जर्मन, पोलिश, रूसी, या तो कहीए की हिंदी, मराठी,  जो जहां का भी येहुदी हो, हिब्रु को ही अपनी राष्ट्र भाषा समझेंगे और सीखेंगे.  

खैर हमने तो अपना रास्ता ढुंढ ही लिया है, जुगाड़ ढुंढ ही लिया है,  जैसे के पहले कहा गया है । बच्चों को इंडिया वाली अंग्रेजी सीखने पर ज़ोर फरमांगे तो सही पर कहेंगे बच्चों कि अब यह देश अंग्रेजों की याद दिलाने वाला इंडिया नहीं रहा। अब यह भारत है। चाहे कितनी ही अंग्रेजी भाषा हावी रहे,  ज़ोर से बोलो भारत माता की जय !

मेरी राय में, मानो यो न मानो,  भारत हो या इसराइल, दुनिया के सामने, एक नैसर्गित दुनिया के सामने,  कलंक के धब्बे बनकर खड़े हैं.

5.44 सांय, 10-03-2024

अंग्रेजी संसकरण - the most abiding blot