मुख्य लेख से मुलाकात करनी हो तो .....Lokmat Samachar_20230814
क्यों गुलाम हो गया था हिंदुस्तान?
आजादी के जश्न के बीच इस सवाल पर गौर करना जरुरी ताकि हम पर फिर कोई आंखे न तरेरे
डॉ. विजय दर्डा (चेयरमैन, एडिटोरियल
बोर्ड, लोकमत समूह
लोकमत समाचार, दिनांक १४-०८-२०२३
मेरी टिप्पणी: 'क्यों गुलाम हो गया था हिंदुस्तान?'
यह शीर्षक को बदल कर 'क्यों गुलाम हो गया है
हिंदुस्तान?' ऐसा कहना मेरे खयाल में है बेहतर । 15 अगस्त का जश्न इस बात पर मोहर लगाता है कि गुलाम तो खैर अभी भी है ही
लेकिन वह स्वनिर्मित है, स्वैच्छिक है, किसी बाहरी ताकतों के
तले नहीं रहा है और उस मायने में वह आज़ाद है ! लेख का कहना यह है कि भारत को भारत को किसी भी
बाहरी ताकतों के खिलाफ एकजुट होने की जरूरत है. यानी कि ऐसा न बने कि कोई फिर से आ
कर अपनी गुलामी में कोई और मोड़ दें. मुगोलों
के तले भारत था हिंदुस्तान, यानि कि फारसी भाषा पर फिदा, अंग्रेज ने अपनी अंग्रेजी भाषा
से वाकीफ कराया और उसका चाहता या कि गुलाम बना दिया. अगर फिर आने वाले काल में उस पर रूस हावी हो
गया तो उसको नाहक मुस्कील से सीखी अंग्रेजी को छोड़ कर रूसी भाषा से हाथ मिलाना पड़ेगा !
गुलाम और उनके मालीक के बारे में कहें तो गुलाम हमेशा असंख्य होते हैं, मालीक कम होते हैं। जैसा कि
उपरोक्त लेख में बताया गया है, मोहम्मद गजनी, तैमूर लंग, नादिर शाह जैसे खुदमुखतारों ने
अपनी छाप उन असंख्य के ऊपर छोड़ने के काबील रहे। और इन में से बाहरी ताकतों में से
ईस्ट इंडिया कंपनी का तो बात ही न पूछिए!
उन्हों जो कर दिखाया उनकी छोड़ी हुई छाप को हटाना तो जाने
मुश्कील ही नहीं, नामुमकीन भी ठरही है। यह ब्रिटेन के एक सिर्फ द्वीपरूपी देश से
जुड़े लोगों द्वारा कारनामा रहा। ग़ज़नी तो
और ही महत्वहीन जगह ठहरी. जैसे कि लेख में
कहा है कि श्री वाजपेयी को अफगानिस्तान में बताया गया था कि: 'वह तो एक छोटी सी जगह है, कोई टूरिस्ट स्पॉट भी नहीं है. ठीक-ठाक होटल तक
नहीं है!!' इतनी छोटी जगा में से मोहम्मद गज़नी काहां से उतपन्न
हुआ था? यह एक छोटे
बनाम बड़े का मामला हुआ है। बल्कि बहुत ही छोटे विरुद्ध बहुत ही बड़े की बात है.
यूक्रेन बनाम रूस के जैसे। इस का लेख में इस का जिक्र किया गया है। एक और उदाहरण में कहा गया है: वियतनाम बनाम
शक्तिशाली संयुक्त राज्य अमेरिका ! लेख में सेः ‘उस छोटे से देश ने अपनी एजुटता की वजह से महाबली अमेरिका को भी घुटने
टेकने पर मजबूर किया. अमेरिका को जंग छोड़ कर भागना पड़ा.’
यहां, क्या इस एकता की तुलना भारत की एकता की लागत से की जा
रही है? वियतनाम के
पैमाने पर एकता की बात करना, इसकी तुलना में, महाराष्ट्र, या कर्नाटक, या
किसी एक भाषा वाले राज्य के भीतर की एकता की आवश्यकता के समान है। निःसंदेह,
यह वह नहीं है जो लेखक बताना चाहता है। उत्साही महाराष्ट्र या
कर्नाटक इस लेख का उद्देश्य नहीं है। वैसे भी उत्साही कश्मीर काफी सिरदर्द बना हुआ
है। लेखक ने जाति, और धर्म के साथसाथ भाषा
के आधार पर बंटवारे का विरोध किया है जोकि सारी दुनिया इसी बुनियाद पर बंटी हुई
है, उन में युक्रेन और विएटनाम भी शामिल है. इससे अधिक विराधाभासी कुछ नहीं हो
सकता.
भारत, वैसे भी, अपने हिंदुस्तान,
हिंदुस्तानी, हिंदी के लिए मान लो औरंगजेब के लगता
संदर्भ से जुड़ा है और अपने इंडिया, इंडियन (भारतीय),
अंग्रेजी के लिए मैकाले के संदर्भ से जुड़ा हुआ है! यहां पर मुसिबत
यह सामने आती अगर इन जैसी बाहरी ताकतों को श्रेय देना न हो तो। आज के भारत इन दोनों को श्रेय कतई नहीं देना
चाहता. इसी के सिलसिले में आज की मौजूदा
सरकार के द्वारा कई ब्रिटिश निर्मित इमारतों के स्थान पर नई इमारतें बनाने,
सड़कों और शहरों के ब्रिटिश
या मुगल द्वारा गढ़े गए नामों को बदलने, कानूनों में संशोधन
करने और उनका नाम बदलने के लिए उल्लेखनीय रूप जल्दबाजी की जा रही है। यह सब इस लिए
कि गुलाम देश तो ठहरा है भारत, अगर मालिक और गुलाम के रिष्ते में से मालिक को
नजरअंदाज़ कर दिया जाय तो गुलाम गुलाम न रह कर अपने आप को मालिक समझे और तह दिल से
आज़ादी का जश्न मना पाये. इस सफल गुलाम देश अपने 77 वें वर्ष में प्रवेश भी कर लिया
है. अगर भारत को स्वतंत्र और सफल समझना है
तो उसे और ही खबरदार बरतना चाहता है कि औरंगज़ेब या मेकौले की कोई स्तुती न हो और उन
के नाम उसकी भविष्य की स्मृति का हिस्सा न बनें!
भारत स्वतंत्रता सेनानियों का आदर करना चाहता है। उनको सारा श्रेय देना चाहता है। उनके प्रणेताओं को नहीं। जिन के वजह से जो वे बने, उनकी अंग्रेजी भाषा सीखी और उसी भाषा को ले कर देश को कैसे चलाना है, वह सीखे। अंग्रेज तो गये तो गये पर गुलामी का उपदेश छोडकर गये. अपनी अंग्रेजी भाषा छोड़कर गये. स्वतंत्रता सेनानियों के हाथ गुलामी का यंत्रतंत्र छोड़ कर गये. और उससे ही तो बना पड़ा है भारत सफल.
संवतंत्रता
सेनानियों के बहुत सारे लोग अनिवासी भारतीय के तौर पर रह चूके थे, विलायात हो कर आये
थे. और आज भी उस का प्रतिबिम्ब चालू है। अनिवासी भारतीय बनने में ही भारत की शान
बनी हुई है. अच्छे से अच्छे शौक्षणिक संस्थान, यानीकि आयआयटी, आयआयएम वगैरेवगैरे, कौनकौन को अनिवासी भारतीय बनाने के लायक बन पाते हैं उस पर
उनके सम्मान का एक पैमाना बनता है।
किसी क्षेत्र में सर्वोच्च बनना है इस भारत मे तो इसी का ही उद्देश्य बनता है।
गुलाम भारत इसी को ही सर्वोच्च समझता है.
फिर भी, दीवार पर जो स्पष्ट रूप से लिखा है उसके बावजूद, सड़क पर आदमी के प्रति कुछ सहानुभूति व्यक्त करने, उसकी
प्राथमिक मातृभाषा को अधिक महत्व दिलाने, अनुदेश का माध्यम अपनी अपनी मातृ भाषा को बनाने
की कोशिश करने के लिए बधाई हो आज की सरकार को। यह सिर्फ प्राथमिक स्तर पर ही क्यों
न हो, यह सरहानिय बात है। लेकिन यह क्या
मायने रखता है जहां किसी विद्वान का मूल्यवान गंतव्य उसकी सड़क नहीं, बल्कि एक स्वइच्छुक गुलाम भारत हो, एक ब्रिटिश निर्मित भारत, क्षमा
करें, स्वतंत्रता सेनानी, एनआरआई, अनिवास भारतीय निर्मित भारत हो?
निश्चित रूप से, भारत अपने बीच में यूक्रेन को
बर्दाश्त नहीं कर सकता। कश्मीर पर अभी भी कितना भरोसा किया जा सकता है? यह समझे कि
कितना शोरगुल होगा अगर सभी मातृ भाषाएं उस बागडोर को अलगअलग दिशाओं में खींचना
शुरू कर दें कि जो इन 76 वर्षों से अपनी पकड़ बनाए रखने में कामयाब रहा है।
हालाँकि, क्या आज़ादी की शुरुआत में एक सिंधी को अपना देश खोना
यह सही विकल्प था? जो कि यह सब उस मंजिल के लिए कि जो पहले एक
गुलाम भारत हो और बाद में भी एक गुलाम भारत हो? अब एक सिंधी को उसका घर बहाल करने का समय आ गया
है। साथसाथ पंजाबी, बिहारी, युपीवलों को न भूलें.
अब समय आ गया है कि गुलामी और उसके साथ साथ पाया हुआ सांप्रदायिक कलंक से कायल
होना बंद हो जाने का।
अगर भारत को गुलामी मुक्त होना है तो उसे यह समझना चाहिए कि कोई किसी
सिंधी का होना, कोई एक वजह से है! कोई किसी पंजाबी का होना, कोई एक वजह से है! ऊपरवाले के सामने वह कितना गुलामी का तांडव
रचाता रहेगा?
11.47 p.m. 18-08-2023
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