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My comment to a Post by Ashok Valecha, Kanker, Chhattisgarh.
6 hrs
(11.45 p.m. 20-08-2019)
मेरा व्यक्तव्यः बढ़िया!!!
समग्र जानकारी के लिए धन्यवाद और उससे जो मिला मुझे लिखने का मौका उस के लिए भी धन्यवाद। सत्तर साल के फासला की दूरी से उस बड़े हादसे को
देखकर ‘सिंध को खोने के नुकसान
का अंदाजा’ को सामने रखा तो जाए लेकिन साथ साथ ‘सिंधु नदी की किनारे की बहती
हवाओं’ ज़िन्दगी में वापस शामिल करने की उम्मीद न रोकनी चाहीए।
हादसे को तो हादसे ही कहने चाहिए। और लोगों उसे स्वतंत्रता का मिलना कहे पण
सिंध के लिए किस हिसाब से उसे खुशियां का सौगात समजा जाए? लेकिन हम पूरज़ोर से स्वतंत्रता दिन
बनाते हैं और यही सोचते हैं कि उस में नाखुशी की कोई गुन्जाईश ही नहीं।
गलत हुआ लेकिन गलत होने का एहसास ही नहीं। जो रास्ता तय किया वो रास्ता पर ही कायम रहना चाहा है। नतीजे में सिंध का खोना, पंजाब और बेंगाल का
बटवारा, युपी-बिहार से मुहाजीर हो कर कराची आने की नौबत, लाखों को बेघर होना और
मारे जाने का माहौल, जिस दुरगती जिसका कोई और मिसाल न मिले, किस नज़र से
स्वतंत्रता दिन को एक जश्न के तोर पर मनाया जाए?
इस सब होने के बाद अफसोस की बात तो दूर हम ने फिलहाल ही में काश्मीर पर मोहर
लगा दी कि एक बाजू हम दिलोजान से स्वीकार करते है कि हिन्दू मुसलमान के बीच लकीर
होना एक अटल हिस्सा है।पाकिस्तान तो होना ही है, लेकिन काश्मीर को नहीं खोना है।
सीधी सी बात पर हम समझने के लिए कतई राजी नहीं कि काश्मीर काश्मिरियों की है,
सिंध सिंधियों का है चाहे कोई हिंदू हो या मुस्लमान पहले वह सिंधी है, गुजराती है,
काश्मीरी है।
माफ करो माफ करो!! नहीं!! पहले तो हम भारतीय है, बाकी सब गैर है। सिंधीओं ने जो खोया है वो भारत ने
पाया है। बाकी सब अपना अस्तित्व खो लें उतना
ही अच्छा भारत। बाकी सब ने अपने वजूद खोने की तयारी बताई है, काश्मीर क्यों अपना
झंडा लहराए?
अगर हम सिंध की अपनी अपनी जगह, पंजाबियों की अपनी अपनी जगह, काश्मिरियों की
अपनी जगह का सोचते तो भारत और पाकिस्तान खतरे में होते और बनेबनाया खेल बिगड़ता।
असल में हम सब लॉर्ड मेकौले( Lord Macaulay 1833) की औलाद हैं। लोर्ड मेकौले ही ने
तो नींव डाली थी कि लोग अपना स्वाभिमान को करे गुल और अंग्रेज़ी भाषा और अंग्रेज़ी संस्थानों
के लिए हमेशा के लिए हो जाय ऋणी। इतना ही अपना लिया जाय कि इनको हटाना मुश्किल ही
नहीं नामुमकीन सा हो जाय, अविभाज्या कारक बन जाय। मेकौले ने कहा था कि ऐसा होने से
अंग्रजों की एक बड़ी उपलब्धी होगी। अभी आज
के दिन हमे कहना चाहिएः मेकौले की जय हो। यह कोई पूछने की बात है कि उनके इरादों वाली उपलब्धी हुई या नहीं? भारत की उपलब्धी भी
उसी इरादों पर तो टीकी है।
देहाती सो निरदोष को छोड़ कर जो हम में से उबर कर पढ़-लिख कर खडे होते हैं उन
सब पर यह कलम लागू। एकता भी कोई चीज़ होती है। इंडिया बनाने में हम एक हो, बाकी
क्या शेष है? स्वतंत्रता लाने वाले तो इंगलंड से
होते हुए आए मेकौले के सुद्ध औलाद थे। जिन में स्वाभिमान तो था लेकिन सिर्फ़ अंग्रेज
के बनाये इंडिया के लिए या तो कहिए भारत के लिए।
उनकी मंज़िल सिर्फ भारत थी, सिंध तो देखे दिखाई नहीं पड़ता था। भारत के लिए न
तो सिंध छोटी सी बात थी, हर एक प्रांत भारत के तुलना में नजिवी वस्तु बनती है।
‘सिंधी भारत के अलग-अलग जगहों पर बस
गए’ — यही तो है एक मिसाल जो आज की आम राय के हिसाब से हर एक भारतियों को अपनानी चाहिए कि
अपनी वजूद भारत की सरज़मीन पर फैला दे। जहां जो ‘अपना साहित्य, भाषा, गीत, खानपान और तहजीब की कुर्बानी’ देने पर आमादा हो, उसी बुनियाद पर पलेगी,
बढ़ेगी भारत की शान।
आज की आम राय यह जताती है कि क्यों
सिर्फ़ सिंध के हादसे को 70 साल के फासले
से देखा जाय, सारे भारत (के हादसे) को देखने का वक़्त आ चला है। हम कितने दीन पाकिस्तान से दुश्मनी
बनाए रखना चाहेंगे? क्या ये बात जायज़
नहीं है कि उपरवाले के बने बनाए साहित्य, भाषा, गीत, खानपान
और तहजीब की अपनी अपनी जगह और हैसियत को वापस बहाल किया जाए? आगे आने वाले दिन में क्या यह अपने फर्ज का हिस्सा नहीं बनना चाहिए? कल तक जो नहीं था, आज से सही। कम से कम दिल में, प्रत्यक्ष रूप से न सही? शुरूआत तो करें। इमरान खान तो एक अच्छे मौके की तरह है। हमारे वक़्त
के लाड़ला एक क्रिकेटर। उसके भरोसेमंद होने में क्या कमी हो सकती है।
काश्मीर
के मुद्दे में हम अड़े रहे हैं। काश्मीर
का तो हम ने तो हल निकाल दिया है, ऐसा समझ कर हम मुतमैन हो कर खड़े हैं। उस पर तो
अभी बातचीत की कोई गुन्जाईश ही नही है यह हमारी समझ है।
मानो कि यह
होते हुए भी सारे के सारे हिंदुस्तान पाकिस्तान को ले लेकर बातचीत के दायरे में फेंका
जए और सारी चीज़ें नये दृष्टीकोन से देखा जाय, तो आपकी क्या राय है? यह
क्यों नहीं हमें चाहिए कि काश्मीर तो क्या, सारे के सारे सिंध, पंजाब, मुजाहिर पर गौर किया जाए और रास्ते पर से अनचाही चीज़ों को अपने अपने लोगों की ओर से, और उनके
बनाने वाले भगवान की ओर से, उखेड़ दिया जाए? इधर अच्छा खासा
पूण्य मिलने की गुंजाईश है। यह ही तो वक़्त है उसे कमाने का। बात बिगाड़ने वाले तो
चले गएं। हम को तो इल बात को सुधारने से पुण्य ही पुण्य है।
पर, लगता
है, यह सब नामुमकीन है। हम बिगड़े हुए कांटों के सेज पर ही सोना पसंद
करते हैं और उसी में अपनी भलाई समझते हैं। अफसोस ही अफसोस।
11.20 सुबह,
24-08-19
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