गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

गांधी - 150 - अर्जून के प्रतिरूप

150 वीं गांधी जयंती, 
स्थायी विरासत
आलेखः भीखू पारेख
इंडिया टुडे - 7-ऑक्टोबर, 2019


मेरी टिप्पणी: गांधी अपने आप में पूर्ण नहीं थे, 'गांधी इतने मनुष्य थे कि संत नहीं हो सकते थे, और यह कहते हुए कि निजी और दार्शनिक सीमाओं के बावजूद गांधी के विचारों में हमें रास्ता दिखाने की क्षमता है। '  तो किसी के भी विचारों से रास्ता दिखाने की क्षमता हो सकती है, उनमें मैं भी शामिल क्यों नहीं हो सकता?
वे वास्तव में भागवत गीता में अर्जुन की तरह बहुत अधिक मानव थे। गांधी ने कभी भी कृष्ण की बाजू अपनाने का प्रयास नहीं किया।  यानिकि सर्वज्ञानी, सर्वव्यापि समग्र दुनिया के भगवान अवतार की बाजू से रहने की कोशिश नहीं की। उन्होंने खुद को अपने भावुकता में जकड़ लिया था और साथ में दूसरों को भी इस में जकड़ा कर रखना चाहा।
जैसा कि उल्लेख किया गया है, 'वह भारतीय इतिहास में लोगों को अपने पीछे गोलबंद रखने वाले सबसे महान नेता रहे हैं',  और एक-चौथाई सदी तक भारतीय राजनीति में उनका बोलबाला रहा. यह एक दुर्भाग्य है कि, एक अर्जुन है जो हमें विरासत में मिला न कि कृष्ण जो हमारे लिए एक अनुकरणीय, सर्वश्रेष्ठ  स्थिति उत्पन्न करते।
जाहिर है कि उसका सबसे आशाजनक हिस्सा उसकी गलतियों को स्वीकार करने में था। अगर उन्होंने सोचा कि 1946 और 1948 के बीच सांप्रदायिक हिंसा हुई थी,  इस मामले पर पर्याप्त ध्यान नहीं देने के परिणामस्वरूप थी, तो यह वास्तव में बहुत अच्छा है। धर्म के नाम पर एकता लाने से ही हिंदुस्तान पाकिस्तान नाम का बटवारा हुआ।  भारत एक खोज, उसमे और कोई विकल्प नहीं है बल्कि एक आदर्शवाद हिंदू राष्ट्र का विकल्प है जो आज और भी लोगों में गठीत किया गया है। आदर्शवाद, संवेदनशीलवाद अर्जुन का रास्ता चूने तो यही सब की उम्मिद की जा सकती है। उसके बरअक्स निर्दयी यथार्थवादी कृष्ण को शामिल करते तो सारी कायनात सामने खड़ी हो जाती। ये ना पूछो कि आपके पास क्या आने वाला है। भारत के कितने हिस्सो को ललचाई आंखों से देखा जाए? कृष्ण कहेता है कि  यह पूछो कि मेरे पास क्या है।  मेरे पास तो कायनात है। यह सब मेरे ही तो हैं।  कहो कि तामिल नाड, या कश्मीर, या मंगोलिया, या तो पेरू! गांधी तो सामान्य इंसान के रूप में, जितना लूटा हुआ अंग्रेज छोड़ गए, उतना सब ही चाहते थे। लड़ाई इस पर ठहरी हुई थी कि कोन कितना लें।
एक और लेख में (इसी अंक में,  प्रेम और घृणा के सच-झूठ, रामबहादुर राय) इस बात की पर्याप्त मात्रा में पुष्टी की गई -  12 सितंबर 1947 की प्रार्थना सभा में गांधी जी हिंदू और मुसलमान से शांति बनाए रखने की अपील कर रहे हैं. उसी प्रसंग में उनका एक वाक्य है कि मुसलमानों को पाकिस्तान चाहिए था, उन्हें मिल गया. अब क्यों लड़ते हैं? क्या पाकिस्तान मिल गया तो सारा हिंदुस्तान ले लेंगे? वह कभी होने वाला नहीं है. यहाँ मैं समझूं कि आख़िर में अंग्रेज जो सौगात रख कर गए थे, कोन क्या ले पायेगा उस पर यह बहस ठहरी!   
 उनकी एक स्थायी विरासत गोहत्या की प्रतिबंध में है।  कूड़े के ढेर में अपने सिर को छिपाए रोज़मरा खाने की खोज में और खुद को यातायात भरी सड़कों पर कहीं पर सुकड़कर समाने में लगी हुई देखना यह भारतवर्ष की एक निर्णीत बात है.  क्या गाय के जाति, प्रजाति में जन्म लेने से इस भेदभावपूर्ण व्यवहार को खत्म नहीं किया जा सकता है?  क्या यहां पर उनका कहा हुआ - जानलेवा इंजेक्शन देकर उसकी जिंदगी को खत्म करना प्रेम का कृत्य है. इसेमं हिंसा है, पर यह हिंसक कृत्य नहीं है. यह कठोर रूप हिंसा होना, पर आखिरकार में हिंसक कृत्य न कहना यहां नहीं अपनाया जा सकता है?  जीवन एवं मृत्यु एस दुसरे से लगी हुई चीज़ है।  इस वस्तुस्थिती को कोई हटा नहीं सकता. सर्वव्यापी एक कृष्ण के लिए सारी दुनिया सामने है। दुनिया के अधिकांश भाग में मांस के बिना कोई भोजन नहीं है,  और वह भी अधिकांश गाय का मांस. यह बात गांधी की संकृति में बैठती नहीं है। यहां पर अत्यंत मानवरूपी वाला धर्म का उदाहरण पेश हो रहा है। वास्तवरूपी धर्म की अवहेलना करने में ही जानो मानवरूपी धर्म का कर्तव्य बना हुआ है। इस अवहेलना की निर्भत्सना कोन करना शुरू करेगा?   दुनिया और इस मनमुरादी भारत की इस दूरी दूर करना कितना हितवाहक बनके रहेगा? भारतवर्ष सीमित हिंदू धर्म इस तरह के रोक-ठोक से कभी उबर कर बाहर आयेगा? पर राष्ट्रपीता माहत्मा  गांधी का इस विशेष प्रकार का अलगाववाद  समाप्त होने का कोई आसार नज़र आये तो आये!
गांधीने  एक गहराई वाली बात यह थी कि कोई भी घर्म पूर्ण नहीं है और उसे खुद को मानवीय तर्क और अनुभव की कसौटी पर कसना ही चाहिए, यह कभी पूर्ण इस लिए नहीं हो सकता क्योंकि इसकी अभिव्यक्ति एक खास भाषा में, इतिहास के खास पड़ाव पर हुई और उसकी तरह-तरह की व्याख्याएं की जा सकती हैं। मेरा व्याख्या यह है कि यह विशेष कर भगवान के मानव अवतारों से जुड़े धर्मों पर लागू होता है। यह दुनिया के सभी धर्मों के बारे में लागू होता है,  अलबत्ता समझे कि हिंदू धर्म के। डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर ने हिंदू धर्म से इस लिए बिछड़े कि उनका कहना था कि हिंदू धर्म में मानवीय स्पर्श का अभाव है। उन्होंने फिर मानव वंशज बौद्ध धर्म जो अपनाया. गांधी ने  मानवीय स्पर्श वाले धर्मों को चार चांद लगा दिए। अपने स्वयं के हिंदू धर्म के लिए वह कृष्ण के पक्ष की ओर पार नहीं होना चाहा।  वे प्रत्यक्ष निर्दयी, गैर-भावुक, तटस्थ, यथार्थवादी से विपरीत ही रहने के काबिल रहें।    
  उन्हें राष्ट्र का पिता होने के नाते, हमारा भी मूल्यांकन का दायरा सीमित हो कर रह गया।
4.19 शाम, 12-12-2019



आलेख के प्रासंगिक कुछ अंश- यह अक्सर भुला दिया जाता है कि महात्मा गांधी की उपलब्धियां किस कदर विशाल थीं. उनकी 150वीं जयंती के मौके पर उन्हें याद करना अच्छा होगा. वे पहले भारतीय थे जो भारतको वैश्विक नक्शे पर लाए और अकेले भारतीय भी जिसे दुनिया भर में जाना जाता था. वे पहले भारतीय थे जिन्होंने भारत से पहले भारत के बाहर अपनी राजनैतिक छाप छोड़ी. वे भारत के इतिहास में लोगों को अपने पीछे गोलबंद करने वाले सबसे महान नेता रहे हैं, जो लाखों आदमियों और खासकर औरतों को सार्वजनिक जीवन में लाए. एक-चौताई सदी तक भारतीय राजनीति में उनका इतना बोलबाला रहा कि जिसने भी उनकी नाराजगी मोल ली, उसने राजनैतिक आत्महत्या की.
एक और क्षेत्र जिसमें गांधी ने गहरी बातें कहीं, अहिंसा को उनके आचरण से जुड़ा है. उनके तईं इसे गतल समझा गया था कि केवल नुक्सान न पहुंचाना ही अहिंसा है. अगर एक जानवर किसी असाध्य बीमारी से मर रहा है और उसके जिंदगी के कुछ ही घंटे बाकी है, तो जानलेवा इंजेक्शना देकर उसकी जिंदगी को खत्म करना प्रेम का कृत्य है. इसमें हिंसा है, पर यह हिंसक कृत्य नहीं है. जैसा कि गांधी ने एक बार कहा था, अहिंसा का सही अंग्रेजी अनुवाद नॉन वायलेंस नहीं बल्कि करुणा या प्यार है.
हालांकि, गांधी बहुत धार्मिक व्यकति थे, वे किसी कट्टरपंथी या धर्मांध व्याक्ति से सबसे ज्यादा अलग भी थे. ऐसा इसलिए था क्योंकि उनका दृढ़ विश्वास था कि कोई भी धर्म पूर्ण नहीं है और उसे खुद को मानवीय तर्क और अनुभव की कसौटी पर कसना ही चाहिए. यह अभी पूर्ण इसलेए नहीं हो सकता क्योंकि इसकी अभिव्यक्ति एक खास भाषा में, इतिहास के खास पड़ाव पर हुई और उसकी तरह-तरह की व्याख्याएं की जा सकती हैं. चूंकि ऐसा है इसलिए हर धर्म सम्मान का अधिकारी है. साथ ही, वह दूसरों से भी बहुत कुछ सीख सकता है और इसलिए दूसरे धर्मों के साथ उसे विनर्मता से पेश आना चाहिए. खुद गांधी ने इसकी शानदार मिसाल पेश करते हुए दूसरे धर्मों से, खासकर ईसाइयत से, खुलकर उधार लिया और उसे खूबसूरती से हिंदू धर्म में मिला लिया. गांधी का मार्गदर्शक सिद्धांत यह था कि उदात्त विचारों को सभी दिशाओं से अपने पास आने दो. वे अपनी रक्षा के लिए दीवारों वाले घर में तो रहना चाहते थे, पर उसकी खिड़कियां पूरी खुली रखकर, ताकि विचारों के ताजे झोंके आते रहें.

जब उन्हें लगा कि उनका असहयोग आंदोलन गलत दिशा में चला गया और हिंसक हो उठा है, तब उन्होंने इसे हिमालय जैसी भारी भूल बताया और वापस ले लिया. इतिहास में ऐसा कोई दूसरा नेता खोज पाना मुश्किल है जिसने खुलेआम अपनी गलती मानी हो और सुधार की कोशिश की हो. सांप्रदायिक हिंसा को लेकर भी गांधी ऐसा ही सोचते थे, खासकर 1946 और 1948 के बीच. उन्हें लगता था कि उन्होंने इस पर शायद पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है.



सारा ब्लॉग पढ़ें -  खुद को बनाएं अपना

मेरे और अन्य ब्लोग्ज़ पर तशरीफ़ फरमाइये! :- 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें