गुरुवार, 28 मई 2020

गिद्ध और मजदूर


वॉट्सअप पर भ्रमण कर रहा यह पॉस्ट.  नीचे मेरी टिप्पणी पर ज़रूर ग़ोर फरमाईए...

प्रवासी मजदूर और राजनीति


दोस्तों....
एक तस्वीर और कहानी शेयर कर रहा हूं,

यदि.....
यह कुछ समझा सके तो जरूर जवाब देना।

सूडान की एक दर्दनाक तस्वीर थी जिसमें एक गिद्ध एक भूखी से तड़फती बच्ची के मरने का इंतजार कर रहा था। फोटोग्राफर ने यह मार्मिक तस्वीर खींची जो बहुत बड़ी खबर बनकर छपी थी।

तस्वीर गिद्ध और छोटी बच्ची शीर्षक से न्यूयॉर्क टाइम्स में 1993 में छपी।
फोटोग्राफर को पुलित्ज़र अवार्ड मिला पर चार महीने बाद उसने आत्महत्या कर ली।

आपको पता है कि....
आत्म हत्या का कारण क्या था ?

 सबसे प्रतिष्ठित सम्मान मिलने के बाद वह फोटोग्राफर बहुत खुश था,
लेकिन.....
4 महीने बाद उसके पास एक फोन आया

एक पाठक ने पूछा कि आखिर उस बच्चे का क्या हुआ ?
उसको गिद्ध ने खा लिया ?
 क्या वह मर गया ?

फोटोग्राफर ने जवाब दिया कि मुझे नहीं पता, मैं यह तस्वीर खींच कर चला गया।

जिस पर पाठक ने उस फोटोग्राफर को कहा कि......
आपको पता है उस दिन इस बच्चे के पास एक गिद्ध नहीं बल्कि दो गिद्ध थे ?

पहला गिद्ध जो उस भूखी बच्ची के मरने का इंतजार कर रहा था, ताकि उसको खा कर भूख मिटाए।
दूसरा वह गिद्ध था जिसने इस बच्चे के दु:ख को भुनाया और दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित अवार्ड जीता।
आपने आखिर उसे बचाने का प्रयास क्यों नहीं किया ?

इन सवालों के बाद उस फोटोग्राफर ने आत्महत्या कर ली।

वर्तमान सन्दर्भ में

यदि कोई भी प्रवासी मजदूरों के तस्वीरों को शेयर कर राजनीति कर रहे हैं
और उनके लिए कुछ कर नही रहे तो यकीन मानिए...
वह भी एक ऐसे ही गिद्ध है जो इस मौके को भुना रहे है।

दर्द को बांटा जाता है,
भुनाया नही जाता।

 दर्द बांटने वाले देवता कहलाते हैं, दर्द भुनाने वाले गिद्ध!



मेरी टिप्पणीः   देवता ने क्या सब अच्छा करने का ही ठेका ले रखा हैक्या गिद्ध देवताओं ने बनाई हुई सृष्टी का हिस्सा नहीं है?  असल में गिद्ध प्रजाती की आबादी कम होती जा रही है और इस बात  की दुनिया भर में चिंता का विषय बना हुआ है.
कुछ लोग फोटो खिंचने के लिए ही बनाए जाते हैं. देवताओं से. मजदूरों के तस्वीरें उपलब्ध कराना उन का काम है. और जरा गौर करेंगे तो बात एक मजदूर की नहीं है कि एक फोटोग्राफर से ही पर्याप्त मदद मिल सके.  यह एक जटिल समस्या है जिस का जवाब तो सिर्फ कोरोना के पास है और उस के नाम से बने अनंत स्वरूप धारण करने वाला लॉकडोऊन के पास है.  अगर लॉकडाऊन का प्रयाय न चूना जाता तो मजदूर भी अपना काम कमा रहा होता साथ साथ कि कोरोना अपना काम करता. अगर विधाता से जूझने वाली बात ना करते.  
और शायद सुडान में भी शायद एक बच्ची की ही तो बात नहीं थी. वह चित्र एक विषाळ चित्र का एक छोटा हिस्सा होगा.  और इस लिए तो उस फोटोग्राफर को पुलित्ज़र अवार्ड मिला। पूरी तरह से योग्य माना जा सकता है कि यह पुरस्कार!   
लेकिन क्या पुलित्ज़र अवार्ड ही तो जिम्मेदार नहीं थे कि फोटोग्राफर ने अपनी जान गवाई फोटोग्राफर के पाव जमीन पर शायद नहीं रहे अवार्ड के बाद.   बच्ची को बचाने का कोई खयाल ही न आया हो तो आदमी अपने आप को इतना भी नहीं कोसते कि आत्महत्या कर ले!  जब कभी आदमी ख़यालों की दुनिया छोड़ कर अपने आप को मुकम्मल समजने लगता है तभी तो चौट कुछ ज्यादा ही लगती है. 
मुकम्मल कोई एक आदमी नहीं होता.  मुकम्मल कोई एक से तस्वीर नहीं होती.  तस्वीर मुकम्मल बानाने के लिए एक गिद्ध की जरूरत थी, भुक्के प्यासे बच्चे की ज़रूरत थी, और तस्वीर खींचने वाले की भी.  यह सब से ही तो सृष्टि बनती है.
8.56 शाम,  27-05-2020     



एक और टिप्पणी...

My comment: सवाल यह है कि क्या लॉकडोऊन करने से पहले मज़दूरों का ख़याल किया गया था? या कहीए कि सिर्फ मन की बात ही अमल में लाई गयी? सोचा था कि लड़ाई कुछ ही दिन तक चलेगी. लेकीन दिखने मे छोटा सा खरोच सारा एक ज़खम बन गया और कोई रूज़ आने का नाम नहीं नज़र आता, और तो और मज़दूरो ने बढ़ता हुआ करोना ज़खम में तो नमक भर दिए.   
24-05-2020

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