बुधवार, 12 जुलाई 2023

हाथ खून में डुबोया हुआ!

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1946-47 भारत-पाकिस्तान बंटवारे की हकीकत सुनीये, भाईचारे का ज्ञान सुनाने वालों , बंटवारे के समय की घटनाओं को जानकर दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं, खून खोलने लगता है.
10.43 सुबह, 11-07-2023


मेरी टिप्पणीः  अगर भारत की कोई नुमाइंदगी न करता तो भारत न बनता और साथ में जुड़ा कत्लेआम न होता। उसमे गांधी-नेहरू तो जिम्मेदार ठहरे ही है लेकिन आज मालूम पड़ा कि सरदार पटेल ने तो और भी हाथ खून में डुबोया था।

धन्यवाद!
10.48 शाम, 11-07-2023



और....

भारत का अपना चहेता

विचार 1 - यूं बोल सकते हैं कि ट्रैन जो चल पड़ी उस का नाम हुआ इंडिया। रास्ते में जो लोकल स्टेशन पड़े वहां जो गुस्से वे थे आदर्षवादी और लालची।  उन्हों ने इंडिया से और नाम जोड़ दिया, यानि कि भारत ।  नतीजा यह निकला कि फसल काटी गयी, आदमियों की.

लेकिन एक बात साफ नज़र आती है कि क्यों सरदार पटेल का पुतला बनाया गया हैं, इतना गहरा, इतना ऊंचा.  आदर्षरूपी भारत का यह सदा का प्रेरणा स्तोत्र है.  जिन्होंने, विडियो के हिसाब से, तीन भयावय ट्रैन भेजने में अपना सहयोग किया उनको भारत अपना चहेता मानता है. 

 

अनिवासी भारतियों का तंत्र

विचार 2 - अंग्रेजोंने एक ट्रैन चला दी. रास्ते में  चढ़े  आदर्षवादी,  चढ़े लालची, और एक चढ़े आतंकवादी. ये सारे थे अंग्रेजों से वाकीफ, अंग्रेजी से वाकीफ, यानि कि अंग्रेजों को पटाने के वाकीफ.  इन में से नतीजा यूं हुआ कि आगे चलते फसल काटी गयी, गन्ने के रूप में आदमियों का कतलेआम हो गया, जिन का न कोई लेना और देना था अंग्रेजों से या उन की भाषा से, जो अपनी अपनी ज़िंदगी से खुश थे, जाहां कहीं भी थे, लाहोर के हो या क्वेटा के.  लेकिन नहीं, आ पड़ा जो स्वतंत्रता दौर जो नाहक उन के माथे पर गिरा.

प्रजातंत्र का मतलब है स्थानिय लोगों का तंत्र, नहीं की अनिवासी भारतियों का तंत्र जो की सारे आदर्षवादियों, लालचीओं थे, जिन्होंने ही तो आखिर में तंत्रो को अपने हाथ में लिया है.

अगर प्रजातंत्र की ही बात होती तो कौन कहता है कि कोई किसी को लाहोर प्यारा नहीं था, मुल्टान प्यारा नहीं था.  और भी कह सकते हैं कि कोई किसी को दिल्ली प्यारी नहीं थी, बिहार प्यारा नहीं था.

हम सब अंग्रेजों कि तरह अपनी अपनी भाषाओं के लिए वफादार क्यों नहीं हो पाये? हमने अंग्रेजोंसे बिछड़कर अंग्रेजी सीखे हुए के पास अपनी जिंदगी कुर्बान करते हुए  एक भयावह दौर से गुजर रहे हैं और किसी को कोई उस पर गिला-शिक्वा भी नहीं!    

 


खतरनाक आतंक ही आतंक

विचार 3 - अंग्रेजों ने ही तो 'इंडिया' में ट्रैन लगवाई.  उसमें तीन आतंकवादी चढ़े.  कहिए की एक था आदर्षवादी गांधी, दुसरा था लालच से भरा नेहरू, और तीसरा था जिसको कहते हैं लोहपुरुष - सरदार पटेल. उन्हों ने ट्रैन तो कबजे में लाई पर निकल पड़ी गन्ने की फसल जो काटी गयी.  गन्ने का ज़िक्र जो श्री मेहता ने विडियो में किया है.

अगर अंग्रेज न होते तो ट्रैन न होती.  ट्रैन न होती तो उसमें गुसने वाले आतंकवादी भी न होते और फसल भी न कटती.

यानि कि अगर अंग्रेज न आते तो शायद तादाद में अंग्रेजी बोलने वाले भी न बन पाते कि जोकि इंदिया या तो भारत की राह पकड़ लेते और तबाही मचाते जो मचाई. अंग्रेजी बोलने वाले में से एक गांधी जो ठहरे थे आम जनता के साथ तीसरे क्लास के डिब्बे में यात्रा करने वाले  पर एक बात बदल नहीं सकती कि वे भी अंग्रेज की उपज थे, यानि कि इंडियन थे, यानि कि भारतीय थे, यानि कि फसल कटवाने में वे भी भागिदार थे.  ऐसा समझें कि प्राकृतिक और अप्राकृतिक के बीच इससे अधिक  विशिष्ट टकराव नहीं हो सकता था.

कोई भी अपने अपने गांव से न हिले होते अगर अंग्रेजों की ट्रैन को आतंकवादी न लूटते.  और तो और उस ट्रैन की राह पर आगे चलते हुए गांधी-नेहरु वालों ने और भी पकड़ हासिल कर ली  कि जो अंग्रेज ख़ुद की बस में नहीं था. स्वायत देसी राज्यों रियासतों का एकीकरण जो करवाया.  आज़ादी का अमृत महोत्सव इस ट्रैन को चलाने की कामयाब कोशिश पर ज़ोर डालता है.


किसी को यह नहीं कहना है

विचार 4 -  एसा समझिये कि नाटक में तीन भूमिका रही.  एक तो अंग्रेजों की रही , जिन्होंने ट्रैन बनाई.   दूसरी जिन्होंने अंग्रेजों से इस ट्रैन को चलाना सीखा   और तीसरी जिन की रोज़मर्रा जिन्दगी में न तो अंग्रेज या उनकी ट्रैन से वास्ता रहा होगा. 

हुआ यूं की गांधी-नेहरू ने ट्रैन चलाना सीख कर बगावत बोल दी. नतीजे में तीसरे भूमिका वालों, मासूम, निर्दोषों  के ऊपर लाठी पड़ी.

ये सब बैमानी का नतीजा रहा है. भारत-इंन्डिया बैमानी का प्रतीक है. कोन कहता है कि 1857 का विद्रोह की बुनियाद बैमानी नहीं थीशायद किसी को यह नहीं कहना है

सायं 11.52, 24-07-2023

 


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