यह कैसी शिक्षा? चमक खोती मातृभाषाएं
सरिता, एप्रिल 2016
"स्वदेशी भाषाओं को कमतर बता कर विदेशी भाषाओं के प्रति अत्यधिक महत्त्व वाले नजरिए से आज देश का युवा भाषाई संकट से जूझ रहा है. मातृभाषा से दूर होता युवा न तो पूरी तरह से विदेशी भाषा का जानकार बन पाता है और न ही मातृशाषा अपना अस्तित्व कायम रख पाती है" - श्रीधर बर्वे."
मेरी विवेचनाः समाज जरूरत के हिसाब से आगे बढ़ता है. जरूरत सामने क्या रखी गयी है वह खास मायने रखता
है. शुरु में तो खेर देश आजाद हुआ तभी हम अंतरिक्ष में उड़ रहे थे कि हम अभी शुद्ध
हिंदी से देश को धो देंगे. उर्दु वाले की खेर नही. बना दिया पाकिस्तान इसी नाम से.
लेकिन आदर्शवादी हिंदूस्तान तो बन नहीं पाया. हिंदी के सामने सिर्फ उर्दू ही खड़ी थोड़ी
ही थी, और भाषाएं
भी तो थी. किसी भी कीमत पर देश एक भाषा देश
बनाना हो तो सिर्फ एक अंगरेज़ ही रोब जमा कर बैठी है. न घर के न घाट के वाली बात आप कहे न कहे,
देश को एक रखना है,
एक भाषिय देश बनाना
है. जब अंगरेज थे तो वह अपनी मातृभाषा में
राज करते थे. हम अपने अपने मिर्ज़ा ग़ालिब
बनाते फिरे, प्रेमचंद बनाते फिरे. दोनों जायज़ थे. हमारा वक़्त आया उसी कुर्सीयां पर बैठने का. हमें
तो पहले अंगरेज़ी सीखना और फिर राज करने की नौबत आई. तो क्यों न फिर अंदर बाहर अंगरेज
बनने की कोशिश किया जाय? उसी में तो हम लगें हुए हैं. गालिब और प्रेमचंद को किनारा लग गया. पहेला अक्षर
जो बच्चे को सीखाया जाता है, आम तोर पर, तो है अंगरेज़ी के ही हैं. गुलामी तो करनी ही थी शुद्ध हिंदी
की या संस्कृत की. अंगरेज़ी की क्यों नहीं? जरूरत जो सामने रखी गई है वह है अमेरीका चले जाना या
अमेरीका जैसा एक भाषिय दुनिया-तोड़ देश बनाना. एक दूर के भविष्य तक.
पहले से अगर हम बहुभाषी राष्ट्र की तोर पर रहते तो न तो पाकिस्तान बनता,
न काश्मीर की समस्या. बांगलादेश ही एक देश है जो समझदारी से अपनी भाषा
को इज्ज़त देने में कामयाब रहा है. बाकी के लिए गुलामी में ही भलाई देखी है.
ताः 26-05-2016, 01-45 p.m.
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