सरित प्रवाह \ संपादकीय
कश्मीर और कश्मीरी
14 September 2016 Share on Google+
कश्मीर का मामला तो उलझता जा रहा है. गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने 2 दिन लगाए तो भी कोई हल नजर नहीं आ रहा. घाटी लगातार कर्फ्यू में है और हर रोज
युवा मौतों की खबरें आ रही हैं. एक पूर्व मंत्री ने तो यहां तक कह दिया है कि कहीं
कश्मीर की स्थिति का इराक और सीरिया में फैले इसलामिक स्टेट संगठन के नेता लाभ न
उठा लें. पाकिस्तान चाहे या न चाहे, इसलामिक स्टेट के पास आज इस
तरह की ताकत है कि वह सरहदों की परवा किए बिना, जहां चाहे वार कर सकता है.
कश्मीर 1947 से ही देश के लिए एक चुनौती रहा है. आशा थी कि नरेंद्र
मोदी अपने आभामंडल के सहारे इसलामी अलगाववादियों को मना लेंगे पर ऐसा कुछ नहीं
हुआ. उन्होंने प्रोग्रैसिव डैमोक्रेटिक पार्टी से मिल कर वहां सरकार तो बना ली पर
उस का असर कुछ ज्यादा नहीं हुआ. आम कश्मीरी बहुतकुछ चाहता है और बाकी देश उसे देना
नहीं चाहता, न दे सकता है और न ही देना चाहिए.
कश्मीर को बंदूकों के सहारे कब तक काबू में रखेंगे, इस बारे में कहना आसान नहीं
है पर मणिपुर, नगालैंड, बोडोलैंड के भारतीय उदाहरण और तमिल टाइगर्स का
श्रीलंकाई उदाहरण साफ करता है कि देश से अलग होने वालों के लिए रास्ता आसान नहीं
है. 1947 के बाद दुनिया के बहुत थोड़े से ही देशों का जाति, रंग,
धर्म, कबीलाई, भाषा आदि कारणों से विभाजन हुआ है. हां, जहां जबरन एक देश ने दूसरे पर कब्जा किया था, वहां आजादियां मिली हैं.
वैसे भी, कश्मीरियों के लिए अलगाव कोई हल नहीं है. यह सपना है जो निरर्थक है. अलग होने
पर कोई देश ज्यादा तरक्की नहीं करता. भारत में जो राज्य अलग हुए उन्हें उस का क्या
लाभ मिला? 2 मुख्यमंत्री हो गए, 2 सचिवालय हो गए, छोटे विधानमंडल बन गए, बस. स्वतंत्र देश को बहुत मस्याओं का सामना करना
पड़ता है. नेपाल व भूटान कोई विशेष खुश हों, ऐसा नहीं लगता. हां, उन की राजधानियां अच्छी लगती हैं पर आम जनता त्रस्त थी, त्रस्त है.
बड़ा देश बहुत अवसर देता है. हर उद्योग को बड़ा बाजार देता है. बाहर की चीजें
सस्ती होती हैं. नेतागीरी का खर्च कम रहता है. कश्मीरी युवा समझ नहीं रहे कि पूरे
देश में उन के लिए नौकरियों और व्यापार के अपार अवसर हैं. जैसे असम, बिहार, पंजाब, मणिपुर, झारखंड के लोग सारे देश में
नौकरियां पा रहे हैं वैसे ही अवसर कश्मीरियों के पास हैं. पर विवाद के कारण वे
अपना वर्तमान व भविष्य दोनों खराब कर रहे हैं
खद है कि महबूबा मुफ्ती अपनी जीत को दिल जीतने में परिवर्तित नहीं कर सकीं.
कश्मीर की समस्या को हल न करने में दिल्ली के नेताओं का दोष ज्यादा है जो
जोरजबरदस्ती की भाषा पर ज्यादा भरोसा करते हैं, प्यार व तर्क पर कम.
मेरा मंतव्यः मेरा ‘प्यार व तर्क’ ही तो पहले नजर के
सामने रखा जाता है. ‘जोरजबरदस्ती’ जभी कभी अमल में आता है, जभी जैसे कि आपने कहा: ‘आम कश्मीरी बहुतकुछ
चाहता है और बाकी देश उसे देना नहीं चाहता, न दे सकता है और न ही
देना चाहिए’.
आप ने असम, बिहार, पंजाब, मणिपुर, झारखंड के नाम ले कर यह अंदेशा दिया है कि यह सब
आजाद देशों की सूची में आ सकतें है लेकिन
इनके सामने साथ में रहने के फाईदों की वजह से भारत देश में रहना पसंद किया है. अगर इनमे से कोई देश काशमीर की तरह भारत से आजादी
में अपनी बरकत ज्यादा देखने लगे तो क्या यहां भी हम अपने मूल नियत पर उतरेंगे?
प्रश्न यहां यह है कि हम खुद कितने आजाद है. हमारी आजादी का
मतलब यह रहा है कि कमान अपने हाथ में है जो अंग्रेज के हाथ में थी. हम को तो खरा
उतरना ही है. कहीं ऐसा न हो कि यह प्रांत छोड़ कर भाग गया, या वह प्रांत छाड़
के भागा. कितनी शर्म की बात होगी वह? गोरतलब की बात है कि अंग्रज खुद संपूर्ण दायित्वों
से मुक्त हो चला है यहां तक कि बगल में रहा स्कोटलेंड को भी आजादी देने केलिए
आमादा है. और यहां हम मालूम ही नहीं करना चाहते कि आजादी का और मतलब भी हो सकता
है.
गोरतलब बात यह है कि हम सामने वाले की ओर से नहीं देख पाते.
एक महात्मा गांधी थे जो औरों को भी अपना समझते थे और इसी वजह से अपनी जान
गवाई. आप जैसी निरपेक्ष पत्रिकांये को
तटस्थ रहने में क्या दिक्कत है? अगर महात्मा गांधी
आज मोजूद होते तो आतंकी, देशद्रोही जेसे शब्दों को काश्मीरियों के संदर्भ
में न इस्तेमाल करने देते. किसी को मजबूरी में डालने कतई न पसंद करते. लेकिन
लोकतंत्र जनता का प्रतिबिंब है. हमारी जनता भी तो है जो हराभरा स्टेडियम में सामने
वाले के खुशाली के क्षण पर मौन और शांती का जवाब देते हैं. हम तो देश का प्रतिनिधित्व करते हैं, दुनिया का नहीं. इसी
तरह का देशप्रेम के नाम पर काश्मीर का हल होना नामुमकीन के बराबर है हालांकि जो
आपने बताया – ‘जहां जबरन एक देश ने
दूसरे पर कब्जा किया था, वहां आजादियां मिली हैं’' - इसी की तो कोशिश
जारी है.
8.58 बजे शाम, 29-03-2017, सरिता को भेजने का वक़्तः शाम 11.00 बजे
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