रविवार, 21 मार्च 2021

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आज़ादी का जज्बा हमारे रगो में पकड़ना चाहिए

श्री विजय दर्डा, लोकमत समाचार

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मेरी टिप्पणी: लेखक चाहता है कि उस पैमाने के साथ हमें आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मनाई जानी चाहिए कि जिस से दुनिया स्तब्ध रह जाए। लेकिन क्या हमें वास्तव में उस तरह महोत्सव मनाना चाहिए?

इसका वास्तव में यह अर्थ होना चाहिए कि हमलोग बेशर्मी से दुनिया को इस तथ्य से अवगत कराना चाहते हैं कि हम एक छोटा द्वीप राष्ट्र द्वारा 'बंदी' बनाए गए थे,   जो द्वीप इतना छोटा है कि भारत के कई राज्यों के भितर दो तीन दफा समा जाए, और तो और हजारों मैल दूर तुफानी समुद्री रास्ता तय करके आना, जो वह द्वीपवासीओं ने किया, यह तो हमारे लिए सोचने से भी परे है।  हमारे लिए एक ही चीज़ बचती है तो सिर्फ यह कि हम गोरी त्वचा और उसके संबंधीत जातीय श्रेष्ठाता  के प्रति अपने विश्वास को साकार करना। और यह भी कहना जरूरी समझी जाती है कि हमने जो सफलता पाई इस असंभव फिरंगी कौम के खिलाफ, वह हमने "शांति और अहिंसा के माध्यम से"  पाई जो कि कई  समान परिस्थितियों से गुजरने वाले अन्य राष्ट्रों के लिए उदाहरण स्थापित हुआ। यही जो है कि महोत्सव बनाने का हमारे लिए  कारण बनाता है यूं समझिए.

एक और बात जो कही जा सकती है वह है छिपे हुए हाथ का मौजूद होना।  कोरोना वायरस, हम इसे कितना महत्वहीन समझना चाहें, इसने दुनिया भर में सबसे अविश्वसनीय कहर ढा दी है। यह कहर नैसर्गीक कहर ही होने का समझा जा सकता है।  इसी तरह कह सकतें हैं कि, एक छोटा सा द्वीप के लिए सिर्फ भारत को ही नहीं, ढेर सारे दुनिया के कई हिस्से को अपने घुटनों पर लाने के लिए मानो उन्हें ईश्वरी फरमान से यह खास काम सोंपा गया हो।  कहा जाता था कि ब्रिटिश ध्वज पर सूर्य के अस्त होने का संभव नहीं था। यह सब संभव कतई नहीं हो सकता था बल्कि उस छिपे हुए हाथ के सहयोग से।  एक और तरफ से देखें तो वास्तव में यूं कहे कि यह हमारा  75 वीं वर्षगांठ महोत्सव उस छिपे हुए आशीर्वाद भरा हाथ के विरोध में है.  विधाता के विरोध में प्रदर्शन करना है।

बेशक, कोई किसी से हम घुटने टेकने पर हम मजबूर हो जाए तो हमारे दिल को ठेस तो पहुंचनी ही चाहिए! हम उनके सामने तो कुछ कर नहीं पाये पर अब हम मालिक हैं।  हम शहरों और रेलवे स्टेशनों के नामों के माध्यम से परतत्रिक इतिहास से रुबरू होने से दूर रह तो सकते हैं।  हमने "बॉम्बे/बंबई" हटवाये।  "औरंगाबाद" को भी निष्कासन के लिए कोशिशें की जा रही है। औरंगाबाद पश्चिम से आए हुए एक और पंथ के माध्यम से दिव्य सफल इतिहास का संकेत ठहरा है।

यह नाम-परिवर्तन आम तौर पर अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। हमें मद्रास, कलकत्ता, बंबई वीटी स्टेशन, मुगलसराय, आदि का हटने का शोक क्यों नहीं मनाना चाहिए?  यह हमारी विफलता को उजागर करता है जो हर समय विविधता के बीच में होने के बावजूद विविधता को अपनाना नहीं पाएँ हैं। जैसे कि लेखक ने बयान किया हैः "वाकई दुनिया का कोई और देश विविधताओं से भरा हुआ नहीं है!" सारा के सारा बेकार रहा है यह सब अपने लिए तो।

विविधता, वास्तव में, हम इसे अपने बीच रखने का साहस नहीं कर सकतें। जैसा कि लेखक उल्लेख करता है: "इतना बड़ा देश, इतनी सारी भाषाएं, इतनी सारी सभ्याताएं, इतने सारे रीति-रिवाज़, इसके बाद भी एक देश!" यहाँ मानो या न मानो, इस तथ्य का स्वामित्व मुख्यतः अंग्रेज का है। वह हमें एक छाते के नीचे लाये और यह उसकी परियोजना है जो अभी भी लागू है। वास्तव में जीत के दहाके किसने लगाते रहना चाहिए? जीत किस के पले में पड़ी है? यह जीत और भी अधिक होती जा रही है क्योंकि हम उन्ही के छाते के नीचे रहकर कायम प्रभावित रहना चाहते हैं।

इस लेख से एक चीज़ है जो तैर के सामने आई है वह यह है कि स्वतंत्रता और आज़ादी को हमेशा साथ साथ नहीं ज़ोड सकतें।  यहां कई देशों का उदाहरण दिये गए हैं लेखक द्वारा जहां किसी के तले आधीन न होते हुए,  फिर भी वहां के लोग आज़ाद नहीं है। आप स्वतंत्र हो सकते हैं लेकिन आज़ाद नही।  या तो आज़ाद हो सकते हैं लेकिन स्वतंत्र नहीं। ब्रिटिश समय के दौरान, आज़ादखयाली आम थी, बशर्ते कि आप अंग्रेजों से स्वतंत्रता पाने का ख़याल न रखते. भारत अब स्वतंत्र है लेकिन कुछ वैश्विक तिमाहियों में इसे 'आंशिक रूप से मुक्त' मनाया गया  है।

चीन तले तिब्बत का एक पत्रकार को सामने ला के लेखक अखंड भारतीयों वाले के लिए एक भयानक गलती करते हुआ पेश आए हैं। एक कश्मीरी पत्रकार के पास वही बात कहने की होगी जो तिब्बती पत्रकार ने अपने लेख में बताई है। यानि कि ऑलिम्पिक्स में अपने झंडे के साथ अपनी टीम का गुजरता हुआ देख पाने का मौका मीलना। लेखक का  "आज़ादी का जज्बा हमारे रगो में पकड़ना चाहिए" वाला शीर्षक कम से कम कोश्मीरियों को बारे लागू करवाने की ज़रूरत नहीं।  काश्मिरिओं को नाराज़ करने वाली बात यह है कि चाहे वे लोग कुछ भी समझे,  यहां हम भूलना नहीं चाहते कि हम ब्रिटिश साम्राज्य के गौरवशाली उत्तराधिकारी हैं। अगर बात बनती तो नेहरू के लिए बर्मा और सीलोन को भी अपने खेमे में डालना चाहते।

भारत का जज्बा हमारे ब्रिटिश वंशानुक्रम से पर्याप्त रूप से मिलती है। लेकिन परिणामी भारत-पाकिस्तान फासले ने भी कोई कम मदद नहीं रही है। बहुसंख्यवाद आज की सरकार को एक मुख्य स्थंब के रूप में खड़ा है।  लेखक ने इस लेख को जो लिखा है, वह है यह दर्शाने के लिए कि "भारतीय होने के अधिकार के मामले में संख्या का मतलब नहीं है।  विविधता में एकता ही हमारी शक्ती है।"

लेकिन आज के दिन एक ही प्रश्न सामने आता है कि जब हम पाकिस्तान को स्विकार करते हैं तो उसी के प्रतिबिंब के रूप में भारत को क्यों नही?  और बहुसंख्य को अपने दायरे ला लिया गया तो फिर एक विविधताओं में झकड़ा जाने के बजाए हम और सारे आम देशों कि तरह एक भाषीय, एक धर्मीय  देश बनाने कि सतत कोशिश करके  देश में एकता और अखंडता का रास्ता क्यों नहीं मज़बूत करना चाहिए? एक बात याद रहेः भाजप उसी रास्ते पर चल रही है जहां कि कॉंग्रेस ने रास्ते बनाएं हैं. भारत और पाकिस्तान कॉंग्रेस ने बनाये हैं. विविधता पर वजन देना कोई किसी को गवारा नहीं था आजादी मिलने के समय या तो अब. "भारत माता की जय" की पुकार भाजप  के होने के पहले की गई है। समझो कि भारत न होता, तो पाकिस्तान न होता. न तो अपने तले से पुर्वजों की धरती हिलती, न तो खून की नदियां बहती. विविधता की अहम चीज़ है अपनी अपनी जगह, अपनी अपनी भाषा.  उसको ठुकराना यही है भारत का काम.   और इसी काम के नाम पर, समझिए की उसी की खुशी में, हम महोत्सव बनाना चाहते हैं. निसर्ग और पकृृृृति से हम हमेशा जुझते रहेंगे.  उसी में हमारी खुशी समाई है। गलत काम से ही तो खुशी का मतलब होता है।

   केवल हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आदि होना ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि एक अच्छा बंगाली, एक अच्छा पंजाबी, एक सिंधी, एक कर्नाटकी आदि होना भी जरूरी है। लेकिन इन सारी चीज़ों को नज़र अंदाज़ कर के हरएक को एक ही आकार में भारत ने ढांचना चाहा है। यह सब कैसे कर पाना संभव हो सकता है बल्कि अंग्रेज़ी विरासत से पाई गई अंग्रेजी भाषा से, बने बनाए रास्ते से, कायदे कानून से? भारत-पाकिस्तान को इस विरासत को भूलना मुशकिल ही नहीं, नामुमकीन है.  सो लो आया है महोस्तव करने की वजह।  आखीर इन सब में क्या याद किया जाता है?  फतेह किस की रही है?

 7.40 सांय, 21-03-2021  

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