कैनोपी के तले सुबाष चंद्र बोस
सुभाष चंद्र बोस वर्तमान भारत के आकार से 13.5 गुना छोटे एक
द्वीप राष्ट्र के खिलाफ खड़े हुए थे लेकिन सफल नहीं हो सके। राज्य के चले जाने के बाद
अब वे उस खाली जगह पर कब्जा कर रहे हैं। हमने बाबरी मस्जिद गिराने का जश्न मनाया।
जब बाबरी मस्जिद वास्तव में बनी थी तब हम कहाँ थे?
यह सब दिखा रहा है कि वास्तव में हम कितने छोटे हैं।
हम तो रिक्त जगाह भरने में ही तो
अपनी शोहरत पाना चाह रहे हैं। अंग्रेजों की
छोड़ी हुई खुर्सियों पर बैठने के लिए नेहरू कितने उतावले दिखाई पड़े. किसी चीज़ को हड़पने, किसी रंगरूप से अमानती
चीज़ को हड़पने में हमारी काबिलियत पेश करने में मानो हम कोई गिला नहीं समजते। विक्टोरिया टर्मीनस एक पूर्ण रूप से विलायती
ढांचे के ऊपर छत्रपती शिवाजी महाराज का नाम दे कर ही क्या हम अपने आप
को विलायत से आज़ाद होने का दावा करते हैं? शायद हम इसी तरह ही अपनी आज़ादी का सुमार कर
सकते हैं उसमें संदेह नहीं. एक रानी
विक्टोरिया से टक्कर में क्या छत्रपती शिवाजी इस तरह पेश आने में राज़ी होते?
मानो कि दुनिया गोल है, क्या अपना
क्या पराया, सारी ऊपरवाले की अमानत है. तो क्या यह सब का मुज़ाहरा करना ऊपर वाले
के ख़िलाफ नहीं होता?
नैतिकता के विरुद्ध नहीं होता?
लोकतंत्र, जो विलायत की ही तो देन
है, उसमें लोगों को उल्लू बनाने का ख़ासा हिस्सा पेश आता है. लेकिन लोगों को उल्लू बनने में कोई आपत्ती नहीं
जब तक कि रोज़ी रोटी मिलती रहे। अफसोस!!
13.05, 17-09-2022
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