मंगलवार, 8 नवंबर 2022

मैकोले पुत्रः ऋषि सुनक

 Lokmat Times_2022

कब्र में भी चर्चिल की आत्मा बेचैन होगी...!

पहले ईस्ट इंडिया कंपनी पर भारतीय मूल का कब्जा और अब पीएम की कुर्सी पर भी बैठा भारतवंशी

विजय दर्दा  (चेयरमेन, एडिटोरियल बोर्ड, लोकमत समूह)  31st October 2022

 

मेरी टिप्पणी: ऋषि सुनक का विलायत का प्रधान मंत्री पद पर स्थापन्न होना इसे मैकाले की दृढ़ता का प्रतीक कहा जा सकता है। इसे मैकाले  से बोया गया बीज का आगे चल कर एक सर्वोच्च पद की हद तक पहुँना, ऐसी यहां पर बात हुई है.   जिस पद पर विंस्टन चर्चिल जो दो बार स्थापन्न हुए थें, जिस पद पर बैठने के लिए जहां  विंस्टन चर्चिल उपयुक्त ठहरे थे,  आज उसी पद के लिए उपयुक्त ठहरे हैं ऋषि सुनक!

 विंस्टन चर्चील ने तो देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को अधनंगा फकीर कहा था.  निश्चित रूप से सुनक 'अधनंगा फकीर' के तौर पर पेश नहीं आ रहे हैं.    इससे दूर यहां तो उन्हें भारतीय मूल के होने पर भी कभी कोई संदेह कर सकता है!  असल में सटीक रूप से वे पाकिस्तानी मूल के हैं, एक नस्लीय दृष्टि से। जब ध्यान केंद्रित कर दिए जाता है उनके धर्म पर तो वे हो जाते हैं वे भारतीय मूल के होने केलिए काबिल!  ब्रिटेन में कई लोग के पूर्वज लगभग श्री सुनक के पूर्वज के ही इदगिर्द के मुल्क के हैं लेकिन क्यों कि अगर ठहरे हैं वे मुसलमान, उनको अपना सर्वश्रेष्ठ भारत दूर ही रखना पसंद करता है, यह समझना आसान है!

 उस 'अधनंगा फकीर' कहां से आया था?  उसे मैकाले के रंगढंग से पूरी तरह से पहेचान और अनुभव पाये होते हुए भी यह क्या बात हो गई?   इसका कारण यह है कि उन्हों ने यानी कि इस 'अधनंगा नग्न फकीर' ने नीचले स्थर  से ऊपर की ओर देखना चाहा था.  उनके लिए देश नीचे से शुरू होता है जहां पर कि मैकेले का साया पडने में देरी थी. वे ट्रैन के थर्ड क्लास के 'थर्ड क्लास' लोगों के साथ भी मिलझोल होना चाहते थे.  बाकी सारे नेताओं को यह सब गवारा नहीं था. 

 बाकी सारा ब्रिटिश निर्मित भारत 'अधनंगा फकीर'  वाले मामले से अपनी पहचान नहीं बनाना चाहता है यह बात तो तय है। हमारा सारा ध्यान सुनक जैसी उपलब्धियां को अधिक से अधिक घटित होने के लिए तरसता है। हम अंग्रेजों की अवहेलना करना चाहते हैं लेकिन उनके बड़ी शिद्दत से बनाए हुए कदमों से हटना हमारे लिए दुश्वार है यह हमने मान लिया है.

 विंस्टन चर्चिल की ओर से पूर्ण अवमानना ​​​​काफी जायज है,  अगर इस पर गोर करें कि उनका एक अत्यंत छोटासा देश, भारत उपखंड से 18 गुना छोटासा देश ने,  न सिर्फ भारत पर बल्कि लगभग सारी दुनिया पर राज किया है. जैसे कि लेख में लिखा गया है 1941 की जनगणना के अनुसार 1.44 लाख ब्रितानियों ने भारत में रह रहे कर अपना अधिकार जताते थे. उसके सामने आज के दीन, आज के भारतीय मूल के 16 लाख लोग, कहिए कि मैकाले के बच्चों,  उस ब्रिटेन के छोटासा द्वीप में रह  कर के उसे अपना वतन मान लिया  है.  अगर आज़ादी के पहले का भारतीय उपखंड शामिल केया जाए तो समस्त आंकडा तो कुछ और भी ज़्यादा होता होगा. इन सब मैकोले के बच्चों मे से आज एक प्रधान मंत्री बन पाया है उस पर तो अंग्रेज 'सभी समुदाय के गौरव की उपाधि होगी', यह मैकोले का खुद का बयान था उसकी कुछ पंक्तियां नीचे दी गयी हैं.

इसके विपरीत, अगर सर विंस्टन चर्चिल जैसे लोगों के ऊपर कोई और भाषा का प्रभुत्व पेश आता, उन के द्विपनुमा देश में औरों के ज़रिए नये गांव बनते, शहर बनते,  सड़कें बनती,  और इन सभी को उस दूरदराज़ देश में औरों के खुदकी ज़बान व संस्क्रुती की सुविधा के नाम दिए जाते तो फिर समझ लीजिए कि वक़्त 'के पन्नों ने क्या पलटी मारी है'  यह सब कहना मुनासीब होता.  अभी तो खैर यह कहिए की फिलहान के मुश्किल वक़्त में बीते हुए सामराज्य में से निकला हुआ एक फलस्वरूप ऋषि सुनक काम में तो आया!  

 लेख में कहा गया है कि 'वाकई भारतीयों ने दुनिया में न केवल आर्थिक बल्कि राजनीतिक रुप से भी बेहतरीन मुकाम हासिल किया है. मॉरिशस, फिजी जैसे देशों में तो भारतीय राजनीति के  शिखर पर है ही, कनाडा में भारतीयों का काफी प्रभाव है. पुर्तुगाल के प्रधानमंत्री एंटोनियों कोस्टा भी भारतीय मूल के हैं.'   यह सब वाकई में क्या बताता है? आखिरकार किस के नाम का गुणगान हो रहा है? यह बात से क्यों वंचीत रहना चाहते हो?  अगर अंग्रेज या पुर्तुगाली सात समुद्र पार करके भारत नहीं आते तो क्या यह सब हो सकता था? शायद तभी भारत या भारतीय होने का, इन शब्दों का,  इतना महत्व भी न हो पाया होता!  ढोंगी आदर्षवादीओ ने भारत-पाकिस्तान वाला स्वरून भी दुनिया के सामने नहीं रखा होता.

इस साल का आज़ादी का अमृत महोत्सव भी क्या दरसाता है?  यह दरसाता है कि इतने सालों तक भी हमने अंग्रेज ने दी हुई पकड़ को ढीली नही होने दी है!  क्या हम अंग्रेज के दिया हुआ राज्य नहीं चला सकते थे?  यहां पर हम गर्व के साथ कहतें हैं कि हमने सर विंस्टन चर्चिल को गलत साबीत किया है.  हम ने अंग्रेजों से अच्छा पाठ सीखा है! आज्ञाकार शिश्यों के तौर पर हम सारी दुनिया को पछाड़ कर सकते हैं.     

00.02 08-11-2022  


हां पर सर मैकेले के शब्दों को दोहराना ज़रूरी है....

2 फरवरी 1835 को ब्रिटिश संसद में लॉर्ड मैकाले का अभिभाषण....

1833 में, जब कंपनी के शासन को चुनौती नहीं दी जा सकती थी, मैकाले ने संसद में पूछा था कि भारत का दूर का भविष्य क्या हो सकता है। उनके प्रश्नों और उनके उत्तरों ने आज जो यथास्थिति है, उसके लिए अंतिम शब्द उपलब्ध कराए।

उन्होंने पूछा था, 'क्या हमें भारत के लोगों को अज्ञानी रखना चाहिए ताकि हम उन्हें विनम्र बना सकें?'

'या हम सोचते हैं कि हम महत्वाकांक्षा जगाए बिना उन्हें ज्ञान दे सकते हैं?

'हमारे भारतीय साम्राज्य की नियति घोर अन्धकार से ढकी हुई है...हो सकता है कि भारत का जनमानस हमारी व्यवस्था में तब तक फैल जाए जब तक कि वह उस व्यवस्था को अपना समझ सकते हैं ;  कि, अच्छी सरकार द्वारा हम बेहतर सरकार की क्षमता के लिए लोगों को  शिक्षित कर सकते हैं कियूरोपीय ज्ञान में प्रशिक्षित होने के बाद वे भविष्य  में यूरोपीय संस्थानों की मांग कर सकते हैं।

'क्या ऐसा दिन कभी आएगामुझे नहीं पता। लेकिन मैं इसे टालने या मंद करने का प्रयास कभी नहीं करूंगा। यह जब भी आएगाअंग्रेजी इतिहास का सबसे गौरवपूर्ण दिन होगा। एक समक्ष  लोगों को गुलामी और अंधविश्वास की सबसे निचली गहराई में डूबे हुए पाया जाना उन पर इस तरह शासन करना कि उन्हें नागरिकों के सभी विशेषाधिकारों के लिए इच्छुक और सक्षम बनाया जाए यह वास्तव में हम सभी के गौरव की उपाधि होगी।

लाल किले में विद्रोह, जेम्स लीज़र, 1959 से लिया गया

और....

     2 फरवरी, 1835 को, ब्रिटिश इतिहासकार और राजनीतिज्ञ थॉमस बाबिंगटन मैकाले ने अपना 'मिनट ऑन इंडियन एजुकेशन' दिया, जिसमें अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के लिए भारतीय 'मूल निवासियों' की आवश्यकता को स्थापित करने की मांग की गई थी। प्रसिद्ध लॉर्ड मैकाले के मिनट ने विवाद को आंग्लवादियों के पक्ष में सुलझा दिया - सीमित सरकारी संसाधनों को केवल अंग्रेजी में पश्चिमी विज्ञान और साहित्य के शिक्षण के लिए समर्पित किया जाना था। लॉर्ड मैकाले का मानना था कि "भारतीय शिक्षा यूरोपीय शिक्षा से हीन थी," जो उस समय भौतिक और सामाजिक विज्ञान के संदर्भ में सही थी। 



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