लोकमत समाचार
संस्कृति का मूल आधार हैं भाषाएं
मेरी टिप्प्णीः औरों को इतना विकल्प नहीं दिया गया जितना की
भारतीयों को दिया गया है, कि अपना खुद का बनो,
न बनो तो और भी अच्छा कि भारतीय बनो. तामिल, कन्नड
बनो न बनो लेकिन भारतीय निश्चित बनो. अंग्रेजों ने हमे उनके जुते चाटते कर दिए
थे. जुते तो हट गये पर गुलामी से आदि,
अंग्रेज ने बनाई हुई गुलामी छत्रछाया से हटना हमारे सोचसमझ से दूर रहा और
कहिए कि इसी में तो छुपी है हमारे एकजुट रहने की कामयाबी.
केंद्र सरकार ने स्थानीय भाषाओं को
प्रोत्साहन देने की पहल करके सरदार पटेल के पुतले को हिलाने वाला ख़तरा मोल रहे हैं या नहीं, यह एक दिलचस्प सवाल हो सकता है.
हर एक आदमी को भिन्न भिन्न बनाया गया है.
उसकी भाषा भी उसी का हिस्सा बनता है. अगर हम उसे कहे कि एक बड़े देश के हित में
अपनी भाषा को किनारा कर दे और साथ में यह भी दोहराओ की वह एक स्वतंत्र देश का एक
नागरीक है, वह बात मेल नहीं खाती. आदमी के हेसियत से नहीं तो खैर आदमी को बनाने
वाले की हैसियत से!
अगर हम छोड़ दे कि इस धर्म का या उस धर्म का होना, सरदार पटेल के पुतले को पूजने में थोड़ी ढिल कर दे, बस एक भाषा का ही तो पहेचान बनाए तो फिर इस अंग्रेज की इस देन में इंडिया पाकिस्तान की कोई जगह नहीं रहेगी. कश्मीरी सिर्फ कश्मीरी बन कर फिरेंगे. जैसे कि होना चाहिए. उपर वाले से कितना बचकर रहना चाहेंगे?
4.59 p. m. 17-11-2022
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