मुख्य लेख - be-your-own-tag_translate
मेरी टिप्पणी: लेख में लिखा है कि : ' सार्वजनिक जीवन में धर्म के व्यवहार के दो ही तरीके हैं। एक
तो इसे बढ़ावा देना है, जिस तरह से हम करते हैं; दूसरा इसे दबाना है, जैसा कि अमेरिका में है।'
यह मेरे लिए एक नई बात है। लोगों का अमेरिका की ओर आकर्षित होना इस का भी एक वजह हो सकता है. फिलहाल ही एक फिल्म आई है, ‘डंकी’, जिस में शायद अवैध तरीके भी भारतीय जनों का अमेरिका में प्रवेश करने के बारे में है.
भारत जाहिर तौर पर एक हिंदू क्षेत्र बनता है, और आज का भारत इस पर और ही गौर करना चाहता है। जैसा कि उल्लेख किया गया है 'स्पष्ट रूप से आबादी के 80% हिंदुओं के भारी बहुमत को 14% मुसलमानों, 2.3% ईसाइयों और बमुश्किल 1% बौद्धों पर प्राथमिकता मिलेगी।'
मेरे दृष्टिकोण से धर्म का उल्लेख करना और उसके आधार पर लोगों को पहचानना यह एक अनचाही बात है। धर्म ईश्वर से जुड़ने के लिए हैं । इसका तरीका और साधन मानव निर्मित है। पौराणिक कहानियाँ बच्चों के लिए ज्यादा लागू होती हैं। इसके अलावा और धार्मिकता वाले घ्रथों के पीछे का विचार मानसिक शांति प्राप्त करने का है, जीवन के लिए क्यों-और-क्या का निर्धारण करना है। यह मनोचिकित्सकों का एक लाभदायक जरिया बन सकता है और जैसे कि लेख में लिखा गया है, अमेरिका में समझा गया है कि धर्म एक अपने-अपने में निजी बात का मामला होना चाहिए । सारा देश का विचार कोई किसी धर्म का ही ‘पावन’ नजरों से नहीं देखा जाना चाहीए ।
यह तथ्य कि धर्म लोगों के बीच मतभेद पैदा करते हैं. यह ही तो बुनियादी तौर पर उसका मानव निर्मित होने की अपनी विशेषता को दर्शाता है। आखिरकार ईश्वर एक ही है, चाहे कोई भी हो! रास्ते के उपर कोई भी चलता हो, उसकी तकदीर की रस्सी सिर्फ एक ही विधाता पास होती है।
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वतंत्र भारत का जन्म ही धार्मिक टकराव से शुरू हुआ. धर्म यानि कि मानव निर्मित धर्म को मुख्य आधार के रूप में खड़ा करने के बजाय अगर हम सब नैसरगीक राह अपनाते तो बात कुछ और होती. अंग्रेजों अपने निसर्ग से पाया हुआ इंग्लैंड को वापस चले गए. गुजरातियों भी अपने निसर्ग से पाया हुआ गुजरात को अपना अहम विकल्प समझने में तकलीफ न होती तो बात इतनी न बिगड़ती, जोकि बिगड़ी ! अगर गांधी और जिन्ना जो कि दोनों गुजरात से तालूक रखते थे अपने गुजरात को ही सब कुछ समझते तो फिर क्या होता? अगर सारे के सारे लोग अपने नैसर्गिक पैमाने को पकड़ के ही चलते तो फिर अपनी इस अपनी दुनिया में उसे मानव निर्मित धर्म के उत्थान के नाम पर हत्या और विस्थापन की अमानुष पीड़ा को सहने का मौका नहीं मिलता.
हमारे स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा किए गए पापनुमा गल्तियां का
प्रायश्चित कोई क्यों नहीं करना चाहता? कारण सिर्फ यह है भारत में कोई किसी इमांदारी से आपना बनना
चाहता हो तो उसको पापी, या कहीए कि देशद्रोही समझा जाता है.
लेख में और लिखा गया है कि - 'इनमें बड़े निर्माण के उद्देश्य से बड़े पैमाने पर सार्वजनिक व्यय भी शामिल है'
सार्वजनिक व्यय और खर्च किया गया समय तब तक समझ
से परे है, जब तक कि आप निश्चित
रूप से भारत-पाकिस्तान सिद्धांत को बेहतर नहीं मानते। और दुर्भाग्यवश, भारतीय लोग इस सिद्धांत को छोड़ना
नहीं चाहते। अयोध्या राम मंदिर भी इस का प्रतीक बना हुआ है।
मेरी टिप्पणी_2: रामायण और महाभारत, धार्मिक-पौराणिक ग्रंथ हजारों साल पहले के समय को दर्शाते हैं। रोजमर्रा की जिंदगी में खेले जाने वाले वास्तविक रामायण-महाभारत को बहुत कम विश्वसनीयता दी जाती है जबकि उसी का ही रामायण-महाभारत का रूप आपके सामने खड़ा हुआ होता है। राम, लक्ष्मण, अर्जुन हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में मौजूद हैं। भगवान की नजर में वर्तमान जीवन ही मायने रखता है। अतीत की याद दिलाने के लिए मंदिर बनाना, जो सिर्फ साहित्य के रूप में मौजूद है, बिल्कुल अनुचित है। इसका शोर-शराबा करना सरासर राजनीति है।
लेकिन फिर क्यों नहीं? भारत के बहुतांश लोग पिछले पुरातन काल को ही श्रेष्ठ मानने पर आमादा है।
11 बजे शाम, 21-01-2024
मेरी टिप्पणी_3 - अगर मैकोले भारतीय
जनों को अंग्रेजी न सिखाता, यानी कि अगर
अंग्रेजी भाषा का गुलाम बनने का कोई प्रेरणा सोत्र न होता, और साथ-साथ में औवरंगज़ेब भी अपने हिंदुस्तान में हिंदुस्तानी भाषा फैलाने की कोई तसदी न लेता तो क्या आज इंडिया, हिंदुस्तान या तो भारत मौजूद होता?
यहां पर सिद्ध होता है कि बाहर के लोगों ने बीज जो बोए उसी का फल-स्वरूप इंडिया, हिंदुस्तान या भारत है.
वे लोग कतई बेईमान नहीं थे अपने नैसर्गिक वजूद के बारे में. लेकिन भारतीयों के बारे ऐसा नहीं कहा जा सकता. अगर भारतीय अपने अपने नैसर्गिक दायरे रहे तो फिर एकता और अखंडता वाला भारत का होना है नामुकीन होता. बाहर के लोगों से मिला हुआ बनेबनाया खेल चौपट हो जाता.
यानी भारत का मतलब ही अपने आप के उपर बेईमानी जताना है जो एक मुख्य स्टंभ के रूप में पेश आता है. खास बात तो यह है कि इसी में भारतीय लोगों को अपनापन पेश आ रहा है. इसी वजह से तो भारत कामयाब हो पाया है. और नही तो और सर विंस्टन चर्चील का भारतीयों के बारे में सिद्धांत को दुजोरा देना ही हमारा पसंदीदा संकल्प बना हुआ है.
3.29, दोपहर, 22-01-2024
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें