रविवार, 25 फ़रवरी 2024

भारत का बामियानवाला धर्मयुद्ध

Lokmat Times _20240218



1963 में और 2008 में विनाश के बाद लम्बे बुद्ध

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'चर्चगेट' का ख़ातमा

मेरी टिप्पणि:

नाम बदलना आपके अन्यथा रोजमर्रा आसान रास्ते पर कोई बीच में आकर फिसला देने जैसा है। एक शब्द के साथ वर्षों का जुड़ाव अचानक अमान्य कर दिया जायउस को अवमूल्यन कर दिया जाय नाम जो आखिर में और नहीं तो क्या  बस एक संदर्भ बिंदु है।

शायद यह नाम का "चर्च" का जो हिस्सा  वह आज प्रचलित विशिष्ट प्रकार के हिंदू पुनर्जागरण की शोभा से बाहर होता हुआ है । लोग ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने के लिए निकल पड़े  हैं। इतिहास के किसी भी हिस्से को गलत कहना दुनिया से मिलने वाली विरासत के बारे में चयनात्मक होना जैसा है । इसको ठीक समझना उसको नहीं। हमारे राजकर्तांओं की तो दुनिया केवल उस सीमा तक ही है जहां तक आजके भारत की सीमा है । जो दूर के है, वे दूर ही रहें। जो गैरमुल्की ठहरे, वे गैर ही रहें।  यह सब के बावजूद हमारे प्रधानमंत्री बाहरी मुल्कों के सोमने "वसुदेव कुटुंबकम" का झंडा लहराते हैं. यानि कि यह समझ ज़ाहीर करना कि आखिर में हम सब एक ही परिवार का हिस्से हैं. यानि कि चर्चहो या कुछ और वह सारे एक ही अपनी दुनिया की पले में पड़ता है.

लेकिन भारतमाता की जय के मामले में यह सब नाजाइज़ के हिस्से में आता है. यह पहले की तुलना में अब अधिक उचीत हो पड़ा है क्योंकि अंग्रेजी भाषा, चाहे कितना ही तथ्यरूप से  विदेशी क्यों न हो, हमारे अस्तित्व का अभिन्न अंग बनी है। आप भारत में बिना अंग्रेजी से समझो सांस नहीं ले सकते।  भारत आखिर में अंग्रेजों ने घढ़ा हुआ देश है. तो फिर उसको अपना समझना कैसेभाषा तो रहेगी पर उस को और अपनी बनानी कैसेतो पड़ी तलवार की धार बॉम्बे जैसे नाम के ऊपर. यहां पर अफसोसनाक बात यह है कि इन नामों को हटाना । बात यह नहीं है की मुंबईका आना जितना कि  हिंदी वाला बंबईऔर अंग्रेजी वाला बोंम्बेको हटाना.  कौन कहेगा कि इन नामों लोगों को पसंद नही थाअसल में इन नामें पसंद थे इसी लिए तो उनपर वार किया गया ! किसको पूनानाम पसंद नहीं था? मुसीबत इस बात की है कि अंग्रेजों को इस बात के लिए श्रेय नहीं देना है, चाहे उन्हीं की भाषा कितनी ही अपने बगल में थमी रहे।

इस को कहते हैं देशभक्ती! औरों के घर में घुसकर उनके स्थाई नामों को हटाना।  ऐसा तो शायद इजराइल ही करने में माहीर है।  अभी हम ने भी हिंमतदिखाई है। लेकिन साथ में वसुदेव कुटुंबकम बोलते हुए जा रहे हैं. यह कौनसा इनसाफधर्म से नाम से, नैतिकता के नाम से?

पहले मुंबई में रेल्वे स्टेशनों पर घोषणा तीन अलग अलग भाषाओं में तीन अलग अलग नाम बोम्बे, बम्बई, मुंबई बोले जाते थे ।  अभी नहीं । यह नहीं किसी को लगता कि नैसर्गीक विविधता पर एक धब्बा लगाया गया है?

यह श्रेष्ठा की सर्वोत्कृष्टता के खो जाने का मामला है। भारत एक भौतिकवादी समाज है, इसलिए श्रेष्ठा का  स्तर कोई मायने नहीं रखता। अंग्रेजी भाषा में उपयुक्त अच्छे शब्दों का लुप्त होना जाहिर तौर पर सत्ता पर अड़े हुए लोगों को कोई मायने नहीं रखता।  दुनिया ने अच्छे से शब्दों खोए हैं उसका कोई मायने नहीं रखता. आखिर में हमारी दुनिया की सीमा सिमीत है।  वासुदेव कुटुंबकम चाहे भाड़ में जाए. भारत माता की जय है भी तो एक चीज़ है । भारत की जो अपनी मौजूदी सीमा से सिमीत है.

लेकिन जैसा कि लेख में उल्लेख किया गया है: "इतिहास आपका और मेरा है, किसी को भी इसे वर्तमान या भविष्य की पीढ़ियों से छीनने का अधिकार नहीं है।" और सबसे उपयुक्त भी: "वर्तमान पीढ़ी केवल उस विरासत की प्रबंधक या देखभाल करने वाली है जिसे कुछ समय के लिए सुरक्षित रखना है।" हम सभी, समझो ट्रेन मेंगुजरने वाले स्टेशनों को देखने के लिए ही होते हैं। हमें रुककर यह नहीं कहना है, कि एक मिनट, हमें इस स्टेशन का नाम बदलने की जरूरत है, अनचाहा इतिहास की याद दिलाने वाला यह नामइसकी मौजुदगी नागवार हैहम चाहेंगे कि इस तरह की भारतीय परिदृश्य पर की अनचाही मौजुदगी को साफ कर दिया जाए।  जैसे की  अफगानीस्तान में बामियान की मूर्तियों को उड़ा दिये गये!

रेल यात्रा महज़ आपकी यात्रा के लिए है, आपके जीवन के एक अस्थायी चरण के रूप में, आप इस पर अपना अधिकार नहीं रखते, जैसा कि लेख में बताया गया है। असल में लेखक चरम सीमा तक कठोर होना चाहता है क्योंकि वह इसे घुमा-फिरा कर व्यक्त करता है: "हत्यारे के रूप में हम मृत्युदंड की सजा के हकदार हैं।"

इतिहास को पवित्र माना जाना चाहिए। जो कुछ हुआ उसे नियतिबद्ध, ईश्वर-समावेशी होता है इस पर लोगों की मान्यता दरकार है.

किसी ऐसी चीज़ को उठा देना जो समय की कसौटी पर खरी उतरी हो, जिस को स्थायित्वऔर स्वीकार्यता  से तराशा गया हो, उसको को देखते हुएइतिहास का अपमान करने जैसा है और इतिहास, जैसा कि कहा गया है, पवित्र है। लेकिन वर्तमान भारत ने तो अपना कर्तव्य ही समझ रखा है कि इस का विरोध करने का।

वास्तव में भारत हमारा नहीं  हैं । जिस इतिहास ने हमें उसे हाथ में थमाया है इसका सरहाना करने से  हम बचना चाहते हैं ।  तदनुसार, भारत वास्तव में विश्व और इसकी विविधता का प्रतिनिधि करने में अयोग्य साबीत हो रहा है ।

अयोग्यता ही हमारा सर्वश्रेष्ठ निशान है।

23:14, 24-02-2024

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