सोमवार, 11 मार्च 2024

कलंक के धब्बे

मूल लेख के लिए -  The Times of India


मेरी टिप्पणी  -  एक असाधारण लेख जिस पर कोई भी टिप्पणी किए बिना नहीं रह सकता।

जब हम राजशाही और साम्राज्यों के बारे में बात करते हैं तो उस के अंतर्गत इकाई से शासन होना ठीक है,  एक अकेले का शासन होना ठीक है ।  एक ही विचार से जु़ड़े शासन का होना ठीक है। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में जब आम लोगों को उत्साहित किया जाता हो,  उन्हें राजनिती में भाग लेने के लिए उकसाया जाता हो कि वे एक इकाई, एक प्रधान मंत्री,  या पार्टी की इच्छा के अनुरूप खुद को ढाल दें,  तो यह पूरी तरह से उचित समझना गलत होगा, खास करके एक विशाल देश भारत में ।  जैसे कि लेख में उल्लेख किया गया है कि भारत मूलरूप से  बहुत अलग तरीके से पेश आया था। विभिन्न समुदायों के अलग-अलग नियम थे। समय के साथ नियम बदले गए. एकरूपता की कोई आवश्यकता नहीं थी।

पहले पुराने भारत में जाति व्यवस्था हावी थी, जहां राजा की एकल इकाई अपना काम करती थी, और जनता अपनी विभिन्न आवंटित क्षमताओं में अपना काम करती थी। भिन्नता का ही एक आधारस्तंभ था । समरूपता, एकरूपता की तभी कोई बात ही नहीं करता था ।

अब हमने जाति व्यवस्था को नजरअंदाज़ कर दिया है, और लोगों को उच्च पदों की तलाश करने के लिए उकसाया  है,  ताकि आम लोगों के बीच में से भी सर्वोच्च पद प्राप्त किया जा सके। पी.एम. मोदी वहां सबसे अनुकरणीय उदाहरण बने हैं,  लेकिन इसका मतलब जनता में एकरूपता लागू करना है,  अधिक से अधिक लोगों को किसी न किसी मुद्दे पर सहमत कराना है,  वह जो लोकतंत्र के रीतरिवाज में लागू होता है । लेकिन यह सब भारत जैसा विस्तार मे लागू करना प्रकृति की नजर में अस्वीकार्य होना चाहिए । बहुसंख्यकवाद,  ध्रुवीकरण,  जनता को इस ओर झुकाना, इस ओर, उस ओर ले जाना लोकतंत्र से संबंधित है,  लेकिन वे छोटे छोटे कस्बे में लागू करना योग्य है, भारत जैसा विविध देश को विविधता को कमतर करना उपरवाले के नज़रिए में से शोभा नहीं देता।    वर्तमान पीढ़ी में "सम्राट अशोक" का होना बिलकुल जाइज़ है पर तभी लोकतंत्र नहीं रहनी चाहिए। राजशाही होनी चाहिए। जो शायद कुछ अप्रत्यक्ष अंदाज़ में आज भारत में अमल में मौजूद है भी !  

असली अशोक सम्राट के दौरान  लोगों को अल्पित रखा जाता था।  उनका राज्यतंत्र से कोई लेना दे ना नहीं था। उनके जीवन में उथलपाथल का मौका कम मिलता होगा   उनको सिंधी, पंजाबियों की तरह भागने का मौका कभी पेश नहीं आया होगा।  

जैसे की ज़ाहीर है, बाकी दुनिया के विपरीत, भारत सिर्फ एक राष्ट्र नहीं है। वह राष्ट्रों से भरा एक राष्ट्र है। अंग्रेजों के तले बना हुआ एक राष्टों का राष्ट्र. यदि पी.एम. मोदी अपने गुजराती भाषी राष्ट्र, गुजरात में अपना दबदबा रखते हैं,  ऐसे में उन्हें पसंद करने वालों का दायरा गुजरात तक सीमित रहता। ठीक वैसे ही जैसे हिटलर मूलतः जर्मन भाषियों का था। निःसंदेह, हिटलर पूरी दुनिया पर कब्ज़ा करना चाहता था, लेकिन जर्मनों की ज़मीन आख़िरकार सिकुड़कर वहीं रह गई जहाँ उनकी जर्मन भाषा बोली जाती है।  वैसे भी हिटलर को अपनी जर्मन भाषा के अलावा कोई और भाषा ठंग से बोल पाते होंगे?   अगर पी. एम मोदी साहब सिर्फ और सिर्फ गुजराती बोलते तो यह लेख की कोई ज़रुरत ही नहीं होती.  भला लोगों को क्यों दूसरों की भाषा सीखनी ही पड़े!

वास्तविकता पर आएं तो  यहां भारत से तात्पर्य उस भूमि से है जिस पर अंग्रेजों ने कब्जा कर रखा था। अंग्रेजों ने जिस पर कब्जा कर रखा था उस पर सवार होना ही पी.एम. मोदी की असाधारण उपल्बधी का कारण बना है.  तथ्य यह है कि गांधी, नेहरू और अन्य लोगों की तरह, भारतीयों नहीं चाहते थे कि बनी बनाई सौगातरूपी पायी गई  कब्जाई  जमीन किसी भी तरह से, उसका कोई भी हिस्सा गवाया  जाय। आज तक की सारी हैरानी सब इसी समबंधी है । अंग्रेजों ने बनाये हुए भारतीय लोग,  गुजरात, या महाराष्ट्र या किसी अन्य भाषाई आयाम में रुचि नहीं रखते  हैं ।  उनको तो सारा भारत अपने तयीं करना है, अपने विचारों के आधीन करना है,  अंग्रेजों से सीखा हुआ विचारों के आधीन और साथ साथ अपने धर्म, हिंदू धर्म के विचारों के आधीन  रखना है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मोहम्मद अली जिन्ना ने  दो-राष्ट्र सिद्धांत को पेश किया। कारण कि इंडिया और भारत के बीच खड़े हुए मुगल निर्मित हिंदुस्तान को कैसे भूला जा सकता है।  लेकिन, अफसोस, यह बस केवल एक ही असहमती थी, जबकि स्व-शासन की माँग करने वाले बांग्लादेश जैसे  सारे समूह उठखड़े होने चाहिए थे.  अगर शायद सारे के सारे नेताओं को अपनी ही भाषा आती तो और सोचने की बात ही न होती.  लेकिन अफसोस,  मुगलों के बदौलत नेताओं ने हिंदी सीखी, और अंग्रेज ने अंग्रेजी‌‌ में माहिर करवाया कि गुलाम बनो तो सही, पर  ढंग से बनो.  

द्वि-राष्ट्र सिद्धांत ने एक स्थायी तत्व प्रस्तुत किया जो अन्यथा संभव नहीं हो सकता था । भाजपा या उस मामले में भारत, (या पाकिस्तान) आपसी नफरत के कारण अधिक सार्थक रूप से जीवित हो पा रहे हैं ।  राजकर्ता यह बेखुदी जानते है कि नफरत को बढ़ावा मतलब  देशभक्ति का बढ़ावा ।  हत्या और विस्थापन जो 'भारतीयों' ने  सिंधियों और पंजाबियों को भुगतने पर मजबूर किया,  वास्तव उसी की नींव ने 75 वर्षों और उससे अधिक समय तक का देशव्यापी कब्ज़ा अजमाने की खुशी भारतीयों के दिलों में पैदा करने में मदद की हैं  । चाहे अपने पैर तले खुन की नदियां बही हो, अपना काम तो हो गया ना ! अपना भारत के लिए सब कुछ जायज़ है । अंग्रेज़ों ने भारतीयों को ऐसा बनाया है कि वे भारत को 'ना'  कभी नहीं कहेंगे।

नहीं, नहीं, वे ना बिलकुल कह पायें गे ।    उन्होंने एक बाहर निकलने का रास्ता निकाल लिया है । वे 'इंडिया' को, यानि कि अंग्रेजी वाला भारत को ना कहेंगे।  जिस तरह से उन्होंने 'बॉम्बे, कलकत्ता, मद्रास' को बाहर कर दिया है । हालाँकि, यह तो सिर्फ नाम बदलने की बात बनी है।   वास्तविक अंग्रेज का बनेबनाया साम्राज्य को ना कतई नहीं होगा ।  जहां तक अंग्रेजों निर्मित भारतीय है, भारत कायम रहेगा । इंडिया हो या भारत दोनो बराबर.

एकता की मूर्ती (स्टैच्यू ऑफ यूनिटी) को खड़ा करना पी.एम. का सबसे ज़बरदस्त तरीका था ये बाताने कि भारत कायम रहेगा । मूर्ति वास्तव में उन्हीं की होनी चाहिए थी ।

आज के भारतीय यानी कि गुलामी का तांडव करने वाले हमें आदर्शरूपी 1000 साल पहले के भारत ले जाना चाहता है ।  वे संस्कृत भाषा वाला भारत के तले आदर्शरूपी नतमस्तक होना चाहते है।  संस्कृत भाषा को लादना सर्वश्रेष्ठ विकल्प है उस में कोई संदेह नहीं । लेकिल हम इसराइल थोडी ने है कि रातोरात संस्कृत भाषा सिखेंगे जैसे कि इसराइलों ने अपने धर्म से लगती हिब्रु भाषा सीखी है?   उनके लोगों चाहे मूलरूपसे कौंसी ही भाषा के हो, जर्मन, पोलिश, रूसी, या तो कहीए की हिंदी, मराठी,  जो जहां का भी येहुदी हो, हिब्रु को ही अपनी राष्ट्र भाषा समझेंगे और सीखेंगे.  

खैर हमने तो अपना रास्ता ढुंढ ही लिया है, जुगाड़ ढुंढ ही लिया है,  जैसे के पहले कहा गया है । बच्चों को इंडिया वाली अंग्रेजी सीखने पर ज़ोर फरमांगे तो सही पर कहेंगे बच्चों कि अब यह देश अंग्रेजों की याद दिलाने वाला इंडिया नहीं रहा। अब यह भारत है। चाहे कितनी ही अंग्रेजी भाषा हावी रहे,  ज़ोर से बोलो भारत माता की जय !

मेरी राय में, मानो यो न मानो,  भारत हो या इसराइल, दुनिया के सामने, एक नैसर्गित दुनिया के सामने,  कलंक के धब्बे बनकर खड़े हैं.

5.44 सांय, 10-03-2024

अंग्रेजी संसकरण - the most abiding blot


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