गुरुवार, 8 अगस्त 2024

संविधान या धर्म, दोनो ही मानव निर्मित

संविधान की शक्ति गुलामी और भेदभाव से मुक्ति  भारत भूषण श्रीवोस्तव 

सरिता, जून (प्रथम) 2024

मेरी टिप्प्णी - इन से निष्कर्ष हो निकलता है कि संविधान हो या धर्म ये सारी चीज़ें मानव-निर्मित है और कहीं से ही वे हठधर्मिता के लायक नहीं बनते. कभी इधर या कभी उधर, कभी यह सोचें या तो फिर वह सोचें.  हर आदमी का जन्मसिद्ध अधिकार है सोचने का. आज भी संविधान नए पन्ने पर लिखे जा सकते कि जैसे कि 1952 में लिखा गया था. मनुस्मृति का दहन करने से कोई बड़ी बात नहीं समझी जानी चाहिए और साथ साथ के इस का भी अंदाज़ा लिया जाय की आखिरकार आज का संविधान महात्मा गांधी, भीमराव अंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस जैसे दर्जनो नेता, विदेशों से पढ़ कर आए हुए नेताओं के 'आइडियों' से बना पड़ा है जो किसी भी तरह से उसे आखिरी जवाब नहीं समझा जाना चाहिए.

यहां यह बात होती है कि कौन आदमी क्या सोचता है. वह तो खैर अपनी मन की बात पर ही घुड़सवार करना चाहेगा. रही बात ऊपरवाले की तो यहां तो कुछ और ही बात बनती है. 

ऊपरवाले ने तो भिन्नता में विश्वास रखा है.  हर एक के लिए आधार कार्ड पर छिपी हुई भिन्नता का अच्छा खासा इस्तेमाल किए जा रहा है, इससे सब वाकिफ है. साथ साथ में कुछ बने अंग्रेज, कुछ पंजाबी, कुछ गुजराती वगैरेवगैरे. कोन कहता है कि यहां ऊपरवाले का कोई लेना देना नहीं है?

लेकिन अफसोसहै जो जिसको हम भारतीय समझते हैं जो समझते हैं कि मानव-निर्मित धर्म या संविधान से ही काम लिया जाना चाहिए, चाहे कितना ही ऊपरवाले से अपने तईं नाराजगी व्यक्त हो. सिंधी अपनी असली कौम भूल जाएं, पंजाबी सिर्फ नाम के रहें.  सरहद पर से प्रकोश, खून से लदी ट्रैनों और और जारी रही कठिनाइयां यह सिद्ध करता है की स्वतंत्र भारत का और ऊपरवाले से कोई घनिष्ठ संबंध नहीं रहा होगा।

स्वतंत्र के पहले अंग्रेज ने तो कोई गलत नहीं किया। उन्होंने तो अपनी छाप, भगवान ने दी हुई छाप, सारी दुनिया में फैलाई। लेकिन हम जो है कि अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारना पसंद किया है।  ऊपरवाले ने दी हुई अपनी छाप पर कुल्हाड़ी मारना पसंद किया है।  अंग्रेज से बनीबनाये देश के गुलाम बनना पसंद किया है। उनसे बनीबनाई चिज़ें इस्तेमाल करते हुए उनके नाम हटाकर उसे अपना नाम दे कर लोगों के आंखों में धूल झोंकना पसंद किया है. भगवान ने दी हुई अपनी अपनी पहचान चाहे कहीं भी चली जाए, लुप्त हो जाये,  हम तो बस भारतीय बनेंगे.  अपने धर्म से तालमेल वाला भारत सर आंखों पर, ऊपरवाला चाहे कुछ भी समझें.

एक और बात आपकी आरक्षण विरोधी इसे हटाने के लिए ही संविधान के बदलने की बात कर रहे हैं. सदियों से समाज द्वारा कुचले लोग मुट्ठीभर नौकरियों व स्कूलों में सीटों पर कुछ को मंजूर नहीं हैं.

यहां पर अंदेशा कैसे क्यों समझा जाता है कि बाकी तो हम जातभात में नहीं मानते पर यहां तो सदियों से कुचले लोगों की जातभात में ज़रूर मानते हैं।  हम तो यूं चाहते हैं कि उस जाती का  आगाभी, सदियों के लिए, सदियों से कुचले हुए लोग के नाम से ही जाना जाए और उन्हें आरक्षण मिलता रहे!  यहां पर कुचले हुए लोग का बदला हो रहा है और वहां औरंगाबाद को हटा कर उसे छत्रपती सांभाजीनगर बना कर जाने 300 साल बाद ना सही बदला लेकर खुशी दायर की गई है।  यह बात कुछ और कि औरंगाबाद एक ज़बरदस्त नाम था.

असल में भीमराव अंबेडकर ने बदला लेने का माहौल पेश करने के बजाए बराबरी का माहौल बनाने की कोशिश करनी चाहिए थी।  सब को आगे देखने की मोहलत हो, साथ साथ पीछे भी देखने के लिए लोगों को हिदायत देनी चाहिए थी. यानि कि जैसे कलम उठाई जाय वैसे झाडु भी उठाना जाना था, चाहे कोई सवर्ण हो या न हो. अभी तो जाने गंदगी होना यूं समझे कि एक प्रगती का हिस्सा समझा जाना है.

12:27 p.m.,  06-08-2024 to Sarita Magazine at 11:15 p.m.

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