शनिवार, 27 सितंबर 2025

नियमों की आवश्यकता के नाम पर !

Lokmat Times _20250922

अपने गिरेबां में भी झांकिए जनाब!

ड्रग्स तस्करी वाले देशों में भारत का नाम क्यों?  और क्या बांग्लादेश नें सैन्य अड्डा बनाएगा अमेरिका?

डॉ. विजय दर्डा

चेयरमेन, एडिटोरियल बोर्ड, लोकमत समूह


मेरी टिप्पणी - अंग्रेज़ अपने पीछे भारतीय नाम की एक जात छोड़ कर गए, जिन्हें उनके अधीन रहने वाले लोगों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इसलिए, एक बार अपने मालिक के हाथों में रहे देश की बागडोर संभालने वाले भारतीयों को, एक पराधीन वर्ग के होने से, एक दुय्यम दर्जे के होने से दूर होने की उम्मीद नहीं की जा सकती. यानी कि जिनकी मानसिकता कभी भी एक मालिक जैसी खुली नहीं हो सकती, परिपक्व नहीं हो सकती! भारतीय होने का, गुलाम होने का कलंक, मीटे न मीटेगा!

 जब किसी भारतीय पर उंगली उठाई जाती है, तो वे तुरंत ही हड़बड़ा उठते हैं। लेकिन उंगली उठने में क्या गलत है? अगर सोच में छिछोरेपन न हो, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। एक मिसाल के तौर पर अगर कोई परिवार कोविड से पीड़ित है, तो इस बात पर औरों का गौर करना और उनकी ओर उंगली उठाने में क्या गलत है? अगर आप किसी परिस्थिति से पीड़ित हैं, तो उन्हें मना क्यों करना चाहिए? जो सामने है उसे नजरअंदाज़ कैसे किया जा सकता है? लेखक: "सवाल यह है कि भारत जब खुद अंतराराष्टीय ड्रग क्रटेल से जुझ रहा है, चारों ओर से ड्रग्स भारत में भेजे जा रहे हैं तो फिर ड्र्स्स कारोबार में हमारी कोई भूमिका कैसे हो सकती है? " यह एक विरोधाभासी बयान है। भारत अपनी इस मामले में भूमिका निभा रहा है, चाहे वह इसे पसंद करे या नहीं। "ड्रग्स के खिलाफ भारत की सख्ती की सराहना भी कर दी गई है." प्रशंसा के साथ साथ 'ड्रग्स ट्रांजिट देश के रूप में भारत का नाम जोड़ना' पूरी तरह से उचीत बात ठहरती है.   इसमें कोई बुरी मंशा नहीं है! और अमेरिका एक खुला देश है। वह अपने पिछवाड़े को नहीं छिपा सकता। अपने गिरेबां में भी झांकिए जनाब!’  वाला शीर्षक यहाँ पर बिनमतलब का ठहरता है.

 चटगाँव, बांग्लादेश के होटल में 120 अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी एक रहस्योद्घाटन है। वह एक भयावह साज़िश ही समझी जा सकती है। मार्टिन द्वीप अमेरिका को मिल आए यदि ऐसा हो गाया तो वह स्थिति अत्यंत गंभीर होगी.’  यह बिलकूल डरावनी बात है.

 सऊदी अरब और पाकिस्तान का हाथ मिलाना एक अच्छे भारतीय का होशोहवास उबलने पर मजबूर कर देता है। भारत पाकिस्तान के साथ किए गए अच्छे व्यवहार को बर्दाश्त नहीं कर सकता। एक आम भारतीय को यह नहीं सोचना चाहिए कि श्री सैम पित्रोदा ने जो कुछ कहा है, कि हम सब एकसे हैं, झगड़ना क्यों? उससे उन सभी लोगों को घबराहट हो रही है जो नफरत के स्थापित रास्ते पर चलना चाहते हैं। गुलाम भारतीय दूसरी तरफ से देखना बर्दाश्त नहीं कर सकता। भारत के लिए पाकिस्तान पर उन हताश और दृढ़निश्चयी कश्मीरियों की मदद करने का दोष है जिन्हें आतंकवादी करार दे कर अपने आप को तसली देना चाहता है.

 क्या इसका मतलब यह होना चाहिए कि क्रिकेट मैच में हाथ नहीं मिलाना चाहिए? खैर, भारत एक लोकतांत्रिक देश है और हर खिलाड़ी का अपना नज़रिया होता है। लेकिन एक 'सज्जनों' के खेल को और अधिक बदनाम करने के बजाय, और भले ही भारतीय सज्जन न होंजिस तरह वे खेलने के लिए बाध्य हुए क्योंकि 'नियमों की आवश्यकता थी',  उसी तरह हाथ मिलाना  भी बाध्य होना चाहिएनियमों की आवश्यकता के नाम पर.

2:52 p.m. 27-09-2025


रविवार, 20 जुलाई 2025

सीधी सी एक बात!!

 Sarita/editorial

Operation Sindoor : सिंदूर का राजनीतिकरण


मेरी टिप्पणी- भाजप जैसी वोटों बटोरने पर चित्त संस्था कोई नहीं होगी. हर पहलू में वोटों को तलाशने से  विरोधी पार्टीयों का आराम छीन कर रखा है. यह सब, पहलगाम हमला, एक मौके के तौर पर लिया गया है लेकिन आप की इस के पहले की संपादिका में (जुन प्रथम) उनसे पूरी सहमती जताई है, वहां तक की  आप ने कहा है कि कश्मीर का पहलगाम में की गयी आतंकवादियों की हरकतों का नुकसान पाकिस्तान की सेना के साथ वहां की आम जनता को भी सहना पड़ेगा, यह पक्का है.  मेरे लिए तो यह बात तो अत्यंत अस्वीकार करने वाली बात बनती है.

 भाजपा की बुनियादी ढांचा ही पाकिस्तान और पाकिस्तानियों या तो कहिये कि आम मुसलमानों को नफरत की नजरों से देखना,  इन से पाई हुई विरासत को भी रोजमर्रा ज़िन्दगी से मिटाना, यानीकि चमकीले शहरों के नाम जैसे, औरंगाबाद, इस्लामपूर को मिटाना .  हां. लेकीन आप भी इसमे शामिल होंगे इस की थोड़ी कम उमीद थी.

 अगर हम क्रिया और प्रतिक्रिया की बात करें तो एक बाजू है अनौपचारिक तौर पर बने पड़े थे चार-छे लोग, उसमें ज्यादा तर तो शुद्ध भारतीय नागरीक कहलाने वाले लोग थे.   और मरे, मारे तो कितने मरे?  लेकिन भारत की  तरफ से तो पूरजोश शुद्ध औपचारिक मामला बना.  मरने-मारने की तो कोई संख्या नहीं. करोड़ों रूपयों का मामला बना.  मिसाईल या कोई गोलाबारूद कोई सस्ते नहीं. और नहीं तो और  हमारी पूरज़ोर प्रतिक्रिया के बारे में दुनिया भर में विश्वास पैदा करने के लिए संसदीय प्रतिनिधिमंडल का भेजना, उसका सारा खर्च भी तो हुआ! और दुश्मनी को और मज़बूत करने पर विमानों को पाकिस्तानी हवाई क्षेत्र से दूर हट कर चलाना पड़ना, उससे होता हुआ दुर्लभ इंधन व्यय, पैसे का व्यय और प्रदूषण में योगदान करना. ये सब का पहलगाम का प्रतिक्रया में शामिल होना!  इस टाईम का आतंकी हमला ने तो खासी कमाल कर दी!  

इस संपादकीय में (जुलै, प्रथम) आप ठीक लाईन में आ गये यह कह कर कि – पहलगाम में हुई 26 निर्दोष भारतीयों की मौतों की जिम्मेदारी मोदी के कंधे पर न आ जाए, इस के लिए पाकिस्तान पर बमबारी की गई.” बात गौरतलब है कि कश्मीर में सारी सरकारी यंत्रतंत्रे इस पर लगी हुई है कि जो हुआ वह न हो। पर इस टाईम भारतीय सरकार के यंत्रतंत्रे जरा मात खा गए. उसके बदले में पाकिस्तान की ओर बंदूक को दागना और पीछे अपने ही आंगन में यहांवहां घरों को जलाना, यह एक आत्मविष्वास का डगमगाने वाली बात दिखी.

आपने और कहा अपनी गलतियों को छिपाना और उन पर पानी फेरना हमारी संस्कृति का हिस्सा है.  यानीकि कहीए कि संस्कृति को सुझबुझ बिना सर्वोत्तम दर्जा नहीं मिलना चाहिये! यहां पर भारतीय संस्कृति को यह कहती है कि जो कोई भी कश्मीर को भारत से बिछड़ाना चाहते है वह देशद्रोही है, चाहे स्वयं काश्मिरी ही क्यों न हो!  संसदीय प्रतिनिधिमंडल का भी अहम काम असलियत छिपाना था। उनको सिर्फ आतंकी हमले पर ही लक्ष्य केंद्रीत करना था न कि कोई पीछे जमी हुई गल्तियों का अनुमान.

इस सिलसिले में हर एक पाकिस्तानी को दुश्मन समझना, उनका विज़ा रद्द करके उनको सीमापार ढकेलना, और नहीं तो और पाकिस्तानी कलाकारों के अंश कोई भारतीय सिनेमा में नजर न आये उस पर खबरदारी बरतना, यह सब हमारी मनमुराद संस्कृती में आ बैठता है. आज की भारतीय संस्कृती में कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है और इसे हर कोई विरोध करने वाला दुश्मन है. और इस पर हर कोई पाकिस्तानी विरोध न करे तो वह पाकिस्तानी कैसा?  इस दुशमनी को और परिभाषित करने की ज़रूरत नहीं बनती.

लेकिन यहां पर फिल्म दिवार का डायलोग बिल्कुल सटीक बैठता है.  भारत कहेगा कि मेरे पास एर शानदार भरोसेमंद रूरक्षा कवच है, शोहरत है, खुशहाली है, आगे दूर दूर तक प्रगती का पैगाम  है,  तो बोलो पाकिस्तान आप की पास क्या है?  पाकिस्तान कहेगा मेरे पास लोगों का दिल है.

इस डायलोग साफ तौर पर इस बात पर रोशनी डालता हुआ दिखाई पड़ रहा है कि पाकिस्तान और उनके चहेतों से संघर्श होना बंद क्यों नहीं हो पा रहा है.    

एक बात है जो हर बात का हल दिला सकता है. यह है कि संस्कृती  की खामिया को स्वीकार किया जाय जो इस लेख में आप ने किया है. संस्कृति आखिर में लोगों की अभिलाषाओं से बनती है. या तो मन की बात कह सकते हैं उससे बनती है. आदमी की मन की बात और उपरवाले की मन की बात कभी एक सी नहीं हो सकती. यह तो सब जानते हैं.  भारत, पाकिस्तान दोनों आदमियों की मन की बातों की देन है. सारी परेशानी इस मन की बात से जुड़ी हुई है. अगर कम से कम आज, मन की बातों को बाजू कर दें तो फिर होगा जो कुछ विधाता चाहता है, निसर्ग चाहता है.  विधाता यह चाहता है कि उसने तामीर की हुई भिन्नता को पूरा इन्साफ मिले.

 सिंधी हो या तामील या कि कश्मीरी सब विधाता की करामत है. आप जब राह पर कोई सिंधी या कश्मीरी से मिलते होंगे तो यह नहीं पूछते कि आप क्यों सिंधी हो या क्यों कश्मीरी हो.  आप का चेहरा वैसा क्यों है कि जैसा वह है?  सीधी सी एक बात!! जय हो विधाता की और संभालो आदमी निर्मित संस्कृतियों से!

11-22, 17-07-2025

सोमवार, 5 मई 2025

भारत-पाक साम्राज्य कब टूटे!

Lokmat Times_20250428

खून खौल रहा है, अबकी बार हो आरपार!

जनरल मुनीर के नफरती बयान से साफ हो गया था कि ये शख्स कश्मीर के लिए षड्यंत्र रच रहा है

डॉ. विजय दर्डा, चेरमैन, एडिटोरियल बोर्ड, लोकमत समूह

ये मजहबी जंग बिल्कुल नहीं है, ये नरपिशाचों  का खूनी कृत्य है. इसे खत्म करना होगा. 

  


   मेरी टिप्पणी – ऐसा कहा गया है कि जब आप बंदर पर हथियार से प्रहार करते हैं तो वह हथियार को दोष देता हैहत्यारा को नहीं.  यहां पर उससे बिल्कुल विपरीत,  हथियार कौनहत्यारा कौनइन पर नजर डाली जाय न डाली जायसीधा जनरल मुनीर की कमीज़ का ही कोलर पकड़ा गया है.  दोनो चीज़ों से आसानी बरतती है. एक बाजू सिर्फ हथियार का दोषी पाया जानादूसरी तरफ दूर बैठे बस एक पाकिस्तानी जनरल मुनीर को जिम्मेदार ठहराना.  सही में होंशियारी देखें तो जिम्मेदर तो सिर्फ उपरवाला ही बनता है.  खास कर के जहां मौत शामिल होवहां तो खैर उपरवाले कि ही मर्जी समझी जाती है.

खैर उपरवाले को कौन पूछे?  पूछे तो ठीक उसके नीचे जो है श्री मुनीर.  एक बाजू ठहरे राजा मुनीर और दूसरी बाजू है ठहरे राजा श्री मोदी.  यहां पर राजा़ओं के बीच का मामला हैप्रजा का नहींयह सिद्ध है. शुरु में एक राजा ने ही तो अपनी दुम बचाकर जम्मू-कश्मीर को भारत के राजा नेहरु को सौंप दिया था.

आखीर में इंडिया-पाकिस्तान कैसे बनेदोनों ही अंग्रेज़ साम्राज्य की देन है. साम्राज्यवाद इनकी बुनियाद है. यानी कि राजाओं का मामला है.  असली जो राजाओं थेजो जन्मजात राजाओं थे,  उनकी रियासतों को अंग्रेजों ने यूं ही जारी रखें थें. अंग्रेजों से आज़ादी के बाद उन को बेदखल कर दीये गये क्योंकि राजाओं की क्या हेसियत रही जब प्रजा को ही राजा बनने का मौका मिल गया हो!

अभी तो सब राजा बनकर चले हैं. चाहे मुनीर होमोदी हो कि इस लेख लिखने वाले श्री दर्डा.  श्री दर्डा ने कहाजो कई बार सुनाया गया है – ‘कश्मीर  भारत का हिस्सा थाहै और रहेगा.  यानी कि कश्मीर भारत के कब्ज़े में थाकब्ज़े में है और कब्ज़े में रहेगा. यह सब राजाओं के मुंह से सुनना अच्छा लगता हैजिन का युग शायद सारी दुनिया से रुखसत हो गया है.   एक भारत-पाकिस्तान हैं  जहां प्रजा को राजा बनने का मौका मिलता है और इस उपलब्धी को कौन छोड़ना चाहेगा?

है कोई एमएलेएमपी जो रातोरात करोड़पती नहीं बनना चाहता ?  सारा कुछ पैसे का मामला है.  लेकिन है कोई जो चीज़ है जो पैसे से नहीं पटाई जातीवह है कश्मीरियों की जिद्द.

लेख में वो भी तो आपकी कौम के थे!' (बांग्लादेशी) और 'वे भी तो आपकी ही कौम के हैं!’ (अफगानियों) आपने  यह कह कर आप भी उस खड्डे में गिरे जहां कि श्री मुनीर खुद गिरे हुए हैं.  मज़हब के नाम पर कौम बनाना अवैध करार कर देना चाहिए.  एक तो साम्राज्य पीछा छोड़ने का नाम नहीं लेतीऔर चोरी के साथ साथ सीना चोरी के तौर पर है यह धर्म के नाम पर है देश को बनानाजो कि भारत-पाकिस्तान है.  दोनों इस मामले में भी दुनिया के नाम पर कलंक है.

अंग्रेज गए तभी उन्होंने साम्राज्य को तोड़ कर जाना चाहिए था। चाहे कोई कुछ भी बोले.  जिन्नाहगांधीनेरहुआंबेडकर जो भी हो,  इनको तो बस साम्राज्य बहाल रखना था. और रखा भी! पर स्वतंत्रता का क्या मायने रखा जायवह आज की राजानुमा प्रजा ही जाने!  सही माने में साम्राज्य को रोक कर लोकतंत्र को लाना चाहिए था.  हर एक को अपना वतन अपनी अपनी मात्रुभाषाएं के सीमित तक के देश के लिए समर्पित होना चाहिए था जैसे कि सारी दुनिया में आम तौर पर है.  ऐसा होता तो गांधी और जिन्ना अपना हिंदू-मुसलमान ज़गड़ा अपने गुजरात तक ही सीमित रहता.  काश्मीर क्याऔर क्यों इस की बात तो कोसो दूर रहती.  देशों  के अपने अपने शकलें के लिए अपने अपने नुमाइंदें होते.

लेकिन अभी तो लोगों की नज़र बस इस पर सीमित है किउन्हों ने चोरीछुप्पी आकर हमारे  निर्दोष लोगों को मारे,  हम पर आतंक फैलाया है. हम भी कुछ कम नहीं है. हमारा आतंक तो अधिकृत रहेगावैद्द रहेगायहां के लोगों की मान्यता के साथसोच समझ के साथ.  आए हुए महेमान को उनका विझा रद्द करकेसामान का आदानप्रदान बंद करकेऔर पानी बंद करके हम अपनी ओर से ज़ोर कसेंगे! उससे परेशान सिर्फ निर्दोष आम आदमी ही क्यों न होभारत माता की जय!

छोटा एक काश्मीर की जिद्द ने न तो पाकिस्तान को छोड़ा है न कि भारत को. दोनो साम्राज्यों के बीचइन छोटा सा कश्मीर के नाम पर एक नाहक तबाही हो रही है जो सारी दुनिया देख रही है.  और नहीं तो औरहवाई क्षेत्र को बंद करने पर अंतर्राष्टीय निकायों द्वारा तत्काल निंदा की जानी चाहिए। ईंधन की बर्बादी को एक अपराध समझना चाहिए!  एक छोटा कश्मीर क्या क्या करायेगा इन साम्राजवादियों से?

शायद एक छोटा कश्मीर ही है जो इन दो साम्राजवादियों को सही मायने में आज़ादी का मायना बता सकता है.  आखीर में.  उम्मीद कायम रखें!    

१०.४४ सुबह, ०५-०५-२०२५


 


मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

सावरकरवादियों की निवृत्ती? कतई नहीं!

 Times of India /pahalgam-pakistan/

FROM TOI PRINT EDITION

Pahalgam & Pakistan

April 24, 2025, 7:35 AM IST Syed Ata Hasnain in TOI Edit Page, Edit Page, India, TOI



मेरी टिप्पणी: "जब 26/11 को मुंबई में अजमल कसाब और उसके साथियों ने 165 निर्दोष लोगों को गोलियों से भून दिया थातब आतंकवादियों ने अपने पीड़ितों की घर्म जानने की कोशिश नहीं की थी।" अजमल कसाब को शायद यह समझाया गया था कि उसकी बंदूक के दूसरी तरफ़ खड़ा हर कोई व्यक्ति काफिर हैजिसे मारना उसके धर्म की नज़र में इनाम मिलना है। इसलिए सीना तानो और हत्याओं का सिलसिला शुरू कर लो कसाब ने शायद नर-नारी के बीच भी भेदभाव नहीं किया। वह इस मामले में काफी सुधारवादी रहा होगा। "इस बात की गणना करना कि यह एक कृत्य भारत की सांप्रदायिक शांति को कैसे आग में झोंक सकता है" यह शायद एक बोनस के रूफ में देखा गया होगाक्योंकि "इस तबाही के प्रायोजक अच्छी तरह जानते हैं कि भारत में विभाजनकारी मुद्दे क्या हैं।"

यह बात काफी हद तक सही है। दो-राष्ट्र सिद्धांतअगर कांग्रेस के शासन में अव्यक्त थातो आज केंद्र और कई राज्यों में भाजपा के बढ़ते प्रभाव के साथ सबसे आगे है। जनता इस द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के बारे में पूरी तरह से समर्थन करती है और इसलिए एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष के मुद्दे को खत्म करने की बात को समझना आसान हो गया है।

"प्रत्येक सफल पर्यटन सीजन कश्मीरी आबादी को भारत के साथ और अधिक करीब से जोड़ेगा और जम्मू-कश्मीर पर उभरते आख्यान में पाकिस्तान की प्रासंगिकता को कम करता रहेगा।" जाहिर हैइससे प्रायोजकों को चिंता हो रही होगी। यह तथ्य कि कश्मीरी आबादी भारत के करीब नहीं रही है.  उस के चलते पाकिस्तान से मदद मांगने वाले की आबादी बनी रही है। लेकिनमान लीजिएआबादी किसी 'उभरते आख्यानमें फिसल रही हैतो यह उनकी सारी मदद चौपट होने का डर होना स्वाभाविक होगा।

लेकिन दृढ़ संकल्प और करो या मरो के दृष्टिकोण को नकारा नहीं जा सकताजैसा कि इस मामले में हुआ। दीवार जैसी दीवार खड़ी की जा सकती है, 'बर्लिन की दीवार' जैसी विश्वसनीय रूप से अभेद्य दीवार भारतीय सेना को इसका श्रेय जाता हैलेकिन फिर भी कुछ सावरकर,  'स्वतंत्रता सेनानी या तो कहीए आतंकवादी',  इसमें घुस ही गए!

लेकिन मुद्दे की बात यह है कि यह सावरकरवादी कब सेवानिवृत्त होंगे और कब उन्हें पेंशन मिलने लगेगी?  हमारे पास उन्हें रोकने और काश्मीर में सामान्य स्थिति लाने के लिए योजनाएं काफी सफल हो पा रही है, कईं कुछ बर्षों से!   हां, लेकिन फौज की निगरानी को दूर करना अबतक सम्भव नहीं हो पाया है जोकि इस घटना साबित करती है. हथियार लैस सुरक्षा कर्मी को पाना अभी भी कुछ कम जरूरी नहीं है.  पर्यटक ने यह सब होते हुए भी सामान्य स्थिति लाने में खासा योगदान किया है.  असुरक्षा के काले बादल को नजरअंदाज किया जा सकता है। उसे नजरअंदाज किया गयाअन्यथा पर्यटक कश्मीर में इस तरह से उमड़ पड़ते?

सावरकरवादियों  का शांतिपूर्वक सेवानिवृत्त होना पहले से कहीं अधिक दूर हो पड़ा दिखता है। सीमा पार से उनकी ऑक्सीजन की आपूर्ति को रोकना सामने एक मजबूत बर्लिन की दीवार कग खडा होना, एक जबरदस्ती का माहोल में, सेवानिवृती का कोई आसार नजर नहीं आता। 

आखिर में अगर बात को सुलजनी ही है तो आज उत्पात मचाने वाले मुख्य अपराधी को ऑक्सीजन की आपूर्ति को रोकने में निहित है। यह है धर्म के संदर्भ में जीवन शैली के भेदभाव का विचारधारा है। मुसलमान या तो हिंदू होने के संदर्भ में अपनी अपनी एकता और उसके आधार पर राज्य की नीति निर्धारित करनाजो पाकिस्तान और भारत को परिभाषित करता है,  उसे समाप्त करना होगा। जय श्री राम और अल्लाह ओ अकबर की पुकार को बंद करने की जरूरत है। केवल ईश्वर के संदर्भ में एकता होनी चाहिए न कि धर्म के संदर्भ में.  ईश्वर ने दी हुई पहचान, जो आपको, उनको, सबको परिभाषित करता है उसकी एकता को बनाए रखना चाहिए।

एक बार जब यह तय हो जाता है कि कश्मीर न तो हिंदू का हैन मुसलमान का हैन कि भारत का और न ही पाकिस्तान काबल्कि सिर्फ़ कश्मीर का होना ही एकमात्र उपाय हैअगर सावरकर को हटना है तो।

लेकिन यह आसानी से नहीं हो सकता। विपक्ष भी कुछ विपरीत बोलना नहीं चाहती. विपक्ष को भी अंग्रेजों द्वारा बनाई गईथाली में परोसी गई चीज़ों को फ़ायदे के नजरीये से देखना है। कश्मीर को पीड़ित होने दो। धर्मों को हावी होने दो। दो-राष्ट्र सिद्धांत को मज़बूत होने दो!

शासक वर्ग अलग वर्ग है।  उसे आम लोगों की क्या परवाह है पानी रोकनाव्यापार रोकनावीज़ा रोकना सिर्फ़ आम जनता को परेशान करने वाली बात है.  इस एक बार की सफल घेराबंदी का तोड़ने से बेवजह की घबराहट पेश की गई है. भारत की प्रतिक्रिया यह दर्शाती है जाने पाकिस्तान ने भारत का आत्मविश्वास का नकाब को खिंच लिया हो! सारी कड़ी महेनत का पानी में चले जाने वाली जाने बनी हो!  इस लिये तो शायद पानी को बंद करने की बात हो चली है.

उन्हों ने ते तो चुनचुन कर हिंदूओं को मारा. हालांकी वे अंधाधूंद गोली चला शकते थे और एक बड़ा आंकड़ा पेश कर पाये होते.  लेकिन नहीं, उन्हो ने  भारतमाता को ही ठेंस पहुंचाने की बात करी.   और नतीजे में रोशमें आए भारतमाता ने भारत में बड़ी मुश्किल से आए हुए पाकिंस्तानींओं को एक ही रंग में देख कर, उनको समेट कर, कुड़े कि तरह फेंकना चाहा है, वापस लौटाना चाहा है।  भारतमाता की जय हो!!!

इस नया भारत में मुगोलों का नाम भी लेना पाप समान है, वहां महा मुश्किल से विज़ा निकाल के आए पाकिस्तानिओं को कैसा बरदास्त किया जा रहा था, वह एक भगवान ही जाने. हिंन्दू धर्म का सारे के सारे उलंघन हो रहा था।

सावरकरवादियों तरफ से और कोई  कामयाबी की उम्मीद नहीं की गई होगी.

11:40,  28-04-2025 


गुरुवार, 20 मार्च 2025

ईश्वर बड़ा या कि धर्म?

 वॉट्सअप पर की एक विडीयो क्लीप पर....



मुगलों के कुकर्मों की कहानी मुस्लिम की जुबानी


मेरी टिप्पणी....

पहली बात - मुसलमान कोई आसमान से नहीं टपके कि उनका मुगोलों से कोई वास्ता नहीं. 

 दूसरी बात - जैसे कि इसमें बताया गया है मुगल यानी कि मोंगोल न नाहने वाले में से थे।   अंग्रेज भी कुछ ज़्यादा नहीं नाहते थे। फिर भी इन दोनों ने समझों पांच सौ साल राज किया।  और स्थानीय लोग, रोज रोज नाहने वाले लोग, ज़ोर शोर से पुजा पाठ करने वाले लोग, खाने के बारे में परहेज़ करने वाले लोग, यह लोग बस  देखते ही रह गये। यह सब क्या बताता है?  यह सब बताता है कि ईश्वरकृपा एक बाजू रहती है, और पूजा पाठ की तो कोई और ही बात बनती है.  बोलो ईश्वर बड़ा या कि धर्म? ईश्वर से कितना कितना पंगा लेना चाहते हैं कि धर्म के नाम पर लोगों को घरबार छोड़ना पड़े,  अपनी अपनी भाषाओं  को भी दुय्यम दर्जा मिलने पर मजबूर होना पड़े?

अंग्रेज तो चले गये, लेकिन पीछे इंडियंस यानी भारतीय छोड़ के गये।  मोगलों ने हिंदूस्तानी बनाये.  अगर  न तो कोई हिन्दुस्तानी बनते कि न कोई भारतीय होते, न तो हिंदुस्तान बनता, कि न कोई पाकिस्तान, न की धर्म के नाम पर किसीको घरबार छोड़ना होता.  

भगवान के नाम पर सींधी, पंजाबी, बिहारी वगैरे  बनना ज़्यादा मुनासीब है न कि बनना हिंदुस्तानी पाकिस्तानी या कि भारतीय!

8.27 सायं, 19-03-2025 

सोमवार, 17 मार्च 2025

पहुँच से परे एक शक्ति


 चुनाव से पहले औरंगजेब की कब्र का मुद्दा उठा

मोहम्मद अखेफ (Mohammed.Akhef@timesofindia.com)

छत्रपति संभाजीनगर: मराठा आरक्षण कार्यकर्ता मनोज जरांगे ने शनिवार को कहा कि अगर राजनेता चाहें तो मुगल बादशाह औरंगजेब की कब्र हटा दें। उन्होंने राजनीतिक दलों पर स्थानीय चुनावों से पहले चुनावी लाभ के लिए इस मुद्दे को हवा देने का आरोप भी लगाया।

 जरांगे ने कहा, “अगर आप इसे हटाना चाहते हैं, तो हटा दें। इस बारे में बेवजह बात क्यों करें?  मीडिया ट्रायल की कोई जरूरत नहीं है।

 उनकी यह टिप्पणी महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी के विधायक अबू असीम अजीम द्वारा औरंगजेब की अच्छे प्रशासक के रूप में प्रशंसा करने के बाद बढ़ती राजनीतिक प्रतिक्रियाओं के बीच आई है, जिसके कारण उन्हें चल रहे विधानसभा सत्र से निलंबित कर दिया गया। बाद में उन्होंने अपना बयान वापस ले लिया।

 इस मामले पर बोलते हुए, जरांगे ने कहा, “40 साल तक कोई भी कब्र नहीं हटा सका। अब, निकाय चुनावों से ठीक पहले, इस तरह के मुद्दे उठाए जा रहे हैं। बड़े नेताओं ने इस बारे में बात की है। मैं और क्या कह सकता हूं? स्थानीय मुसलमानों का औरंगजेब की कब्र से क्या लेना-देना है? क्या वह उनसे संबंधित था?” राजनीतिक दलों, खासकर भाजपा ने मकबरे को ध्वस्त करने की अपनी मांग को तेज कर दिया है। इस मुद्दे ने एक तीव्र विभाजन को जन्म दिया है, जिसमें विरोधी दलों ने महायुति सरकार पर वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए इतिहास का उपयोग करने का आरोप लगाया है।



मेरी टिप्पणी: इतिहास पवित्र है। यह औरंगजेब या संभाजी महाराज सहित सभी से परे है।

भाजपा मूल रूप से देवताओं के सामने अपना सिर झुकाने के लिए जानी जाती है। वे ऐसा इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए करते हैं कि सब की पहुँच से परे एक शक्ति  है। यह बहुत सीधी सी बात है, लेकिन फिर भी वे औरंगज़ेब को इतिहास के पन्नों में जो कुछ हुआ उसके लिए पूरी तरह उत्तरदायी क्यों मानते हैं, जबकि ऐसा करने वाला, परिणामों को आकार देने वाला और कोई नहीं बल्कि हमसब की पहुँच से परे एक शक्ति है। शिवाजी महाराज, संभाजी महाराज, औरंगज़ेब लगभग 300 साल पहले के समकालीन थे, जिन्होंने पहुँच से परे शक्ति के लिए अपनी निर्धारित भूमिकाएँ निभाईं और खुद को इतिहास के लिए प्रतिबद्ध किया। अब इतिहास के कुछ पहलुओं के खिलाफ़ बेचैनी दिखाना तो  उन हाथों के खिलाफ़ बेचैनी दिखाना है, जिनके हाथ में असली नियंत्रण तंत्र हैं, जिनके सामने हर भाजपाई अपना सिर झुकाता है। यहाँ औरंगज़ेब पर घृणा फैलाना,  इतिहास,  ईश्वर द्वारा बनाए गए इतिहास, पर घृणा फैलाना है.   

यह समझना योग्य है कि आज औरंगज़ेब की राख,  300 साल पुरानी राख,  उसकी कब्र में आराम फरमा रही है,  उसे इस बात का बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं है कि उसके नाम पर क्या हंगामा हो रहा है। मनोज जारंगे बिल्कुल सही कह रहे हैं कि इतना शोर क्यों? और आगे कहते हैं, क्या स्थानीय मुसलमान उससे संबंधित थे,  कि अगर कब्र को तोड़ा जाता है तो वे परेशान होंगे?

 हाँ, शायद वे परेशान होंगे! इस वजह से ही तो यह सब रोमांचक हो जाता है। स्थानीय मुसलमान उससे इतिहास से जुड़े हुए हैं, और जाहिर है कि वे उसका महिमामंडन करने और कब्र को तोड़े जाने पर परेशान होने से नहीं बच सकते। स्थानीय हिंदू भी इतिहास के मामले में उनसे जुड़े हैं, लेकिन वे इसके विपरीत चाहते होंगे। इसी का राजनीतिक लाभ लिया जा रहा है या तो कहिए कि इस बात का लाभ को ले के शोषण किया जा रहा है।

इस शोषण में सबसे बड़ा नुकसान औरंगाबाद का खोने का है। इससे बहुत से लोगों, हिंदू और मुस्लिम दोनों को अपने जन्म स्थान का नाम खोना पड़ रहा है। यह उनकी ओर से सबसे बड़ा बलिदान है,  और यह सिर्फ इसलिए है क्योंकि वर्तमान में प्रभारी लोग  इतिहास को अपने हिसाब से सही करना चाहते हैं, इसलिए कि इतिहास का श्रेय जिसकिस को देना है उसको अपना मनचाहा रूप देना चाहते हैं.

यह वास्तव में बलिदान है क्योंकि औरंगाबाद कोई बुरा नाम नहीं है, बल्कि एक जबरदस्त नाम है। लेकिन फिर बॉम्बे, पूना, कलकत्ता, इलाहाबाद, मद्रास,  वगैरे, वे सभी  भी कोई बुरे नाम नहीं थे।  वे उस समग्र, विश्वव्यापी छत्रछाया के अंतर्गत आते हैं, जिस पर परे की शक्ति का नियंत्रण है, जिसके अंतर्गत सभी प्रकार के लोग और उनके विभिन्न रीति-रिवाज शामिल है। जैसा कि उल्लेख किया गया है, इतिहास का हर पहलू एक ही आदेश के अंतर्गत आता है।

अगर हमें उस छत्र, ईश्वर के छत्र,  के नीचे रहने में कोई दिक्कत नहीं होती तो ये सभी निष्कासन गतिविधियाँ शायद बच जातीं और इस दुनिया के पास हर जगह जहर उगलने का कोई कारण नहीं होता। 

लेकिन भारत और उसके ब्रिटिश द्वारा पेश किए गए लोकतंत्र का मतलब वास्तव में इस छत्र को छीनकर लोकतंत्र में काम में आने वाले  देवताओं को सौंपना है जो कि है जनता को। जनता ही जो है कि राजकरताओं को चुनवाती है और उनको अपने पक्षमें कर लेने में ही लोकतंत्र मे एक बड़ी उपलब्धी मिलती है।  भाजप ने अपने विचारों से बहुसंख्य जनता का मन इतना जीत लिया है कि अब सबसे कटु विपक्ष के पास भी कोई विकल्प नहीं है कि सिवा उसी विचरधारा को अपनाना.

समाजवादी पार्टी के विधायक अबू असीम अजीम द्वारा औरंगजेब की अच्छे प्रशासक के रूप में प्रशंसा करने के बाद महाराष्ट्र में बढ़ती राजनीतिक प्रतिक्रियाएं यह सब कुछ बयां कर देती हैं। यह तो उनकी बहादुरी थी कि ऐसा कुछ बोले। लेकिन फिर, जैसा कि उल्लेख किया गया है, ‘बाद में उन्होंने अपना बयान वापस ले लिया। आखिरकार उन्होंने भी भाजप ने बनेबनाए राहों पर चलना पड़ा। हालांकि,  उन्होंने अपने पीछे प्रभाव छोड़ा, दुनिया भर के लिए,  कि बात कितनी बिगड़ी हुई है।

क्या औरंगज़ेब एक अच्छे प्रशासक नहीं थे? बेशक, थे! लगभग पचास साल का शासन और उनके प्रशासन के तहत अतुलनीय विस्तृत क्षेत्र उनकी सक्षसमता को पूरी तरह से दर्शाता है। उनके पास अपने जीवन में यह सब था। उनका यह एक पात्र था।  कहिए कि यह सब उनके जीवन में लिखा हुआ था।

लेकिन आज, इसी वक़्त उनके जीवन के किसी भी पहेलु के बारे  में जिक्र करना सबसे शर्मनाक अपराध माना जा रहा है,  और नही तो और, ऐसा करने पर जेल की सजा भी भुगतनी पड़ सकती है,  जैसा कि सीएम फडनवीस ने कहा है।  औरंगज़ेब की प्रशंसा पर प्रतिक्रिया जो हुई दर्शाती है कि भारत और पाकिस्तान के बीच मुकाबला कितना एकतरफा हो गया है।

प्रकृति जिस बहु-राष्ट्र सिद्धांत पर जोर देती है, उसकी तो बात ही छोड़िए, द्वि-राष्ट्र सिद्धांत भी निरर्थक बना पड़ा है। इस अखंड और एकीकृत भारत में केवल एकल-राष्ट्र सिद्धांत की ही अनुमति है।

यह भाजपा द्वारा की गई एक उल्लेखनीय उपलब्धि है,  जबकि वह एक ऐसे धर्म की प्रभारी है जो 33 करोड़ देवताओं यानी कि 33 करोड़ दृष्टिकोणों का दावा करता है। उन सभी को समझीए स्टैच्यू ऑफ यूनिटी, वल्लभभाई पटेल की एकता की प्रतिमा,  के पैरों तले कुचल दिया जाना है जो वास्तव में बहुत बड़ी बात है!

भारत, हिंदुस्तान, इंडिया के सभी अतीत के साम्राज्यवादी समर्थक, अंतर्निहित विविधता की सभी बाधाओं के खिलाफ शायद कभी इतनी एकता नहीं जुटा पाए, जितनी आज के शासक वर्ग ने जुटाई है।

प्रश्न यह है कि क्या यह वास्तव में एक अद्भुत बात है?  एक योग्य बात है?

हिंदी मे अनुवाद, 2.52 दोपहर, 16 मार्च, 2025


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